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हिंदी में एमसबीबीएस की पढ़ाई : निर्णय की व्यवहारिकता भी आवश्यक

भारतीय गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलान किया है कि अगले महीने से देश के १६ अटल विश्वविद्यालय हिंदी में एमसबीबीएस की पढ़ाई शुरू कर देंगे। पहली बात यह स्पष्ट कर लेने की है कि ऐसा करने में कोई सैद्धांतिक बाधा नहीं है। रूस लेकर चीन और जर्मनी से लेकर फ्रांस जैसे दुनिया के अनेक देशों में मेडिकल-इंजीनियरिंग की शिक्षा वहां की अपनी मातृषाभा में दी जाती है, तो ऐसा कोई कारण नहीं है कि ये पढ़ाई हिंदी या तमिल, बांग्ला या मलयालम में ना हो सके। लेकिन यह भी अवश्य स्पष्ट कर लिया जाना चाहिए कि उन देशों में पढ़ाई-लिखाई का मुख्य माध्यम और सर्वश्रेष्ठ विकल्प आरंभ से ही मातृभाषा होती है। ऐसे में पढऩे और पढ़ कर निकलने वाले छात्रों को अवसर की किसी असमानता का सामना नहीं करना पड़ता।
भारत में आरंभ से आज तक अंग्रेजी और देसी भाषा के माध्यमों के बीच अवसर, महत्त्व और संभावनाओं की खाई न सिर्फ बनी हुई है, बल्कि चौड़ी होती गई है। इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ने इस परिघटना को पलटने की कोशिश की हो। ऐसे हिंदी माध्यम से डॉक्टरी करके निकले छात्रों और करोड़ों की फीस देकर प्राइवेट कॉलेजों से निकले छात्रों के बीच अवसर और महत्त्व की समानता वह कैसे सुनिश्चित करेगी, इसे उसे अवश्य स्पष्ट करना चाहिए।
दरअसल, ऐसे प्रयोग सफल होने की एक अनिवार्य शर्त यह है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की आज की प्राथमिकताओं में आमूल परिवर्तन किया जाए और सार्वजनिक क्षेत्र को इसमें सर्व-प्रमुख भूमिका दी जाए। तभी मातृभाषा में पढ़ाई करने वाले डॉक्टरों को नौकरी और कर्त्तव्य निर्वाह के उचित अवसर मिल सकेंगे। वरना, आज की संस्कृति के बीच प्राइवेट अस्पताल और नर्सिंग होम उन्हें खुल कर गले लगाएंगे, इसकी संभावना बेहद कम है।
इसलिए अगर सरकार के लिए हिंदी में एमबीबीएस महज प्रचार पाने का एक मुद्दा नहीं है, तो उसे समान शिक्षा और समान स्वास्थ्य सुविधा की नीति भी अपनानी चाहिए। वरना, इस आशंका में दम है कि हिंदी माध्यम से पढ़ कर निकले डॉक्टरों की असल छवि कंपाउंडर जैसी बन जाए और आम लोगों का अंग्रेजीदां डॉक्टरों पर ही असल भरोसा बना रहे।

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