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साधो देखो जग बौराना – गनेशी लाल

भारत एक ऐसा देश है, जहां अनेक धर्म, अनेक भाषाएं, अनेक जातियां, अनेकों वर्ग संप्रदाय एक साथ मिलकर रहते हैं। यही कारण है कि भारत को विविधता में एकता वाले देश के नाम से दुनिया में जाना जाता है और यही उसकी खूबसूरती भी है। लेकिन कुछ वर्षों से तथाकथित धार्मिक लोग इस देश का आधा से ज्यादा भाग अलग करने में लगे हुए हैं वे चाहते हैं कि भारत की विविधता को खत्म करके एक संकुचित सांप्रदायिक अड्डा बना दिया जाए; बाकी लोग जो सनातन से भाई-बंधु की तरह इस देश में रह रहे थे उनके अस्तित्व को खत्म कर दिया जाए। इसी मानसिकता के कारण आए दिन देश में हिंदू मुस्लिम दंगे भड़कते रहते हैं और दूरदर्शन पर जो वैचारिक बहसें होती हैं वह आजकल बच्चों की अबोध लड़ाई की तरह हो गई हैं। ज्ञान-विज्ञान, तर्क-वितर्क का देश में कोई खास महत्व नहीं रह गया। धर्म और राजनीति वैसे तो दुनिया के लगभग सभी देशों में कलह के माध्यम रहे हैं। कोई ऐसा समय नहीं रहा जब धर्मों ने राजनीति से मिलकर कोई विवाद शुरू करके आम जनता को त्रस्त न किया हो। लेकिन आज जब दुनिया चांद और मंगल तब तक पहुंच गई है, उत्तर-आधुनिक युग चल रहा है विज्ञान का विकास चरमोत्कर्ष को प्राप्त कर चुका है। ऐसे समय में छोटे-मोटे धार्मिक संकुचित मुद्दों में देश को अपना समय नहीं बर्बाद करना चाहिए। यदि हम ऐसे निरर्थक कार्यों में अपना वक्त जाया करेंगे तो आने वाले समय की सामयिक चुनौतियों से निपट नहीं सकेंगे। आज देश में जनसंख्या विस्फोट, जल संकट, प्राकृतिक खतरे, शैक्षिक अव्यवस्था इत्यादि कुछ ऐसे जरूरी विषय हैं जिन पर चर्चा करके उनका निराकरण ढूंढना अत्यावश्यक। आज हम देश की साझा संस्कृति को निरंतर नष्ट करते जा रहे हैं, आदिवासियों को खत्म करते जा रहे हैं प्रकृति के साथ प्रकृति से लापरवाही के साथ खिलवाड़ कर कर रहे है जिसके फलस्वरूप तमाम प्राकृतिक संकट गहराता जा रहे हैं; देश की राजधानी दिल्ली में सीमा से अधिक प्रदूषण इस बात का पुख्ता प्रमाण है। कई नदियों, जलाशयों में पानी नहीं रह गया है पानी के नाम पर उनमें केवल मल मूत्र बह रहा है। उदाहरण के लिए – मथुरा वृंदावन में -जहां यमुना कभी ( के समय) जीवन का केंद्र थी, कवियों के काव्य की सुंदरता थी आज मल मूत्र में परिवर्तित हो गई है। गंगा जिसे भारतीय मनीषा में सुरसरि कहा गया है आज प्रदूषण और गंदगी से तबाह है उसका जल आचमन करने के लायक भी नहीं बचा है। यह तो रहीं प्राकृतिक समस्याएं; अब जऱा आज की महंगाई – आम आदमी के प्रयोग में लाई जाने वाली सारी चीजें जैसे तेल, गैस, दाल और पेट्रोल इत्यादि लगभग दुगुना दाम में बिक रहे हैं। कंपटीशन की तैयारी करने वाला विद्यार्थी जो कर्ज लेकर तैयारी करता है वह फांसी लगाकर मरने के लिए मजबूर है। परीक्षा देने के बाद रिजल्ट नहीं आता रिजल्ट आया तो ६ साल तक मामला न्यायालयों में चलता । अकादमिक दुनिया की हालत ऐसी है जहां कोई नियम कानून शेष नहीं रह गया, पीएच.डी चयन का पैटर्न कैसा होना चाहिए देश के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों की का इससे कोई सरोकार नहीं है। कभी कोई यह नहीं सोचता कि चयनित शोधार्थी किस आधार पर चयनित किए गए हैं। यह किसी एक विश्वविद्यालय की स्थिति नहीं है देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों की कमोबेश हालत यही है।
ऐसे अनेक जरूरी विषयों को छोड़कर देश की राजनीतिक सत्ताएं और हमारा समाज निरर्थक धार्मिक बहसों में उलझा पड़ा है, इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ कर सांप्रदायिक दंगे भड़काने की पूरी की पूरी व्यवस्था की जा रही है। ऐसे नाजुक समय में कबीर का याद आ जाना स्वाभाविक है। मध्यकाल में पैदा हुए भारत के अन्यतम संतो में से एक कबीर को जाना जाता है कबीर ने अपने समय की धार्मिक बुराइयों, सांप्रदायिक विद्वेष तथा अमानवीय और अराजक शक्तियों के खिलाफ अपनी भक्ति और साधना के माध्यम से समाज में बिगुल बजाया था। कबीर न हिंदू के हैं, न मुसलमान के। वे उन सभी लोगों के पुरखे हैं जो समाज में मनुष्यता और इंसानियत की बरकत चाहते हैं। अपने समय में उन्होंने जो-जो बातें कही हैं; उनको पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे वे सारी बातें आज और अभी कही गई हों। वर्तमान समय में हमारे देश में ज्ञानवापी मस्जिद मामला, मथुरा-आगरा तथा कानपुर इत्यादि जगहों पर भड़क रहे हिंदू मुस्लिम दंगे बरबस कबीर के उस पद की याद दिला देते हैं –
साधो, देखो जग बौराना ।
साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।
हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।
आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना
कबीर की ये पंक्तियां सिर्फ पंक्तियां नहीं हैं, अगर गौर किया जाए तो आज की इन जटिल समस्याओं का सोचा समझा हल है। आज कबीर को याद करते हुए हम यह पाते हैं कि हमारे यहां कबीर के विचारों को जितना आत्मसात किया जाना चाहिए उतना नहीं किया जा सका। शायद ऐसा होता तो आज लगभग ८०० वर्षों बाद भी कबीर हमारे सामने वैसे के वैसे ना बने होते। आज भी हमारा समाज अपने ईश्वर को कांकर पाथर द्वारा बनाई गई मस्जिदों और तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के निजी स्वार्थ सिद्धि हेतु बनाए गए मंदिरों में अपने ईश्वर को खोजता है ऐसे समय में कबीर का निम्नांकित पद विचार करने योग्य है –
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में।
ना तीरथ मे ना मूरत में ना एकान्त निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में
खोजी होय तुरत मिल जाऊं इक पल की तालास में
कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूं विश्वास में।
कबीर का संपूर्ण जीवन दर्शन प्रकृति के साथ चलकर उस निराकार ईश्वर की साधना तक पहुंचाने वाला है, जहां न कोई सामाजिक कुरीति है, न कोई बंधन है, न कोई धार्मिक ठेकेदार है और न कोई धार्मिक संस्थान। अंतत: कबीर का संपूर्ण चिंतन विकृत मनुष्य को मनुष्य बनाने वाला है। पोथी-पत्रा, गीता, कुरान, बाइबल इत्यादि से परे कबीर मानवीय जीवन की हिमायत करते हैं और जीवन को गति और मति प्रदान करने वाले अमृत स्वरूप तत्व प्रेम की वकालत करते हैं कबीर कहते हैं-
पोथी पढि पढि जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम के, पण्डित होय।।
आज हमने ज्ञान विज्ञान के अनेक आविष्कार कर लिए हैं, १४ वीं शताब्दी से २१वीं शताब्दी में पैर रख चुके हैं; फिर भी मानवोचित व्यवहार क्या होना चाहिए, कैसा होना चाहिए, यह हम नहीं जान सके । ऐसे में कबीर का उपर्युक्त दोहा हमें चिंता में डाल सकता है। आज महान् संत कबीरदास की जयंती पर उनके लिए सच्ची स्मरणांजलि यही होगी कि – हम उनकी बातों पर विचार करें, हमारे समय की कसौटी में जो बातें खरी उतरें – उनकी उन बातों को आत्मसात करें और एक मुकम्मल मानवीय एवं समरस समाज का निर्माण करने का सार्थक प्रयास करें।
(लेखक शोधार्थी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा है)

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