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विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा – राकेश तिवारी

इस वर्ष हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। इस दौरान केंद्र सरकार १३ से १५ अगस्त के बीच तीन दिन देशव्यापी ‘हर घर तिरंगा’ अभियान चलाने जा रही है। हर घर तिरंगा अभियान का उद्देश्य देश के हरेक नागरिक के दिल में देशभक्ति का भाव जगाना है। इसके लिए सरकार तथा अनेक निजी संगठन अपने स्तर से तैयारियां कर रहे हैं।
यूं तो प्रत्येक वर्ष १५ अगस्त को प्रत्येक भारतवासी स्वतंत्रता दिवस मनाता है तथा इस दिन देश को स्वतंत्रता दिलाने में योगदान करने वाले सभी सेनानियों को हृदय से नमन करता है। लेकिन ब्रिटिश शासकों की कुटिलता तथा उत्तरवर्ती भारतीय राजनीति की उदासीनता और भारतीय सत्ता में प्रभावशाली विशेष मानसिकता वाले कुछ लोगों के कारण हम आज भी उन हज़ारों लाखों सेनानियों का नाम तक नहीं जानते जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र हित में बलिदान कर दिया।
आज हम तिरंगे को फहराए जाते समय गाए जाने वाले गीत विजयी विश्व तिरंगा प्यारा के रचयिता की बात करेंगे। प्रत्येक वर्ष विभिन्न अवसरों पर ध्वजारोहण के समय गाए जाने वाले इस गीत के रचयिता का नाम तथा उनके योगदान के विषय में शायद हम में से बहुत से भारतीयों को मालूम भी नहीं होगा। इस अमर गीत को लिखा था श्री श्याम लाल गुप्त जी ने।
श्यामलाल गुप्त , जिन्हें उनके कलम नाम परशाद या पार्षद के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय कवि और गीतकार थे। उनके द्वारा लिखित एक गीत जिसे १९४८ की हिंदी फिल्म, आजादी की राह पर , ( सरोजिनी नायडू द्वारा गाया गया ) में चित्रित किया गया था, को भारत के ध्वज गीत के रूप में स्वीकार किया गया है और हर साल स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र में ध्वजारोहण समारोह के दौरान गाया जाता है।
१६ सितंबर,१८९३ को कानपुर जिले के नरबल कस्बे के एक साधारण व्यवसायी विशेश्वर गुप्त के घर में जन्मे श्यामलाल पांच भाइयों में सबसे छोटे थे। परिवार की आर्थिक दशा अच्छी न होने की वजह से जैसे-तैसे मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने विशारद की उपाधि हासिल की। उन्हें जिला परिषद एवं नगरपालिका में अध्यापक की नौकरी मिली भी, लेकिन जब दोनों जगहों पर तीन साल का बांड भरने की नौबत आई, तो उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
वर्ष १९२१ में जब वह गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, तो फतेहपुर को अपना कार्यक्षेत्र बना लिया। उन्होंने नागपुर के कांग्रेस अधिवेशन में भी भाग लिया। फतेहपुर में वह रानी असोधर के महल से असहयोग आंदोलन शुरू करने के आरोप में गिरफ्तार होकर जेल गए। एक व्यंग्य रचना लिखने के अपराध में उन पर ५०० रुपये का जुर्माना भी लगा। वर्ष १९२४ में जब स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था, तब उन्होंने झंडागान की रचना की, जिसे कांग्रेस ने स्वीकारा और १९२५ में कानपुर कांग्रेस में यह गीत ध्वजारोहण के दौरान पहली बार सामूहिक रूप से गाया गया। दरअसल, श्याम लाल गुप्ता १९१९ में अमृतसर में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड से बेहद आहत थे। उस वक्त देश के लिए बलिदान हुए लोगों की याद में उन्होंने झंडा ऊंचा रहे हमारा गीत लिखा था।
अपनी रचना के बाद से ही यह गीत ब्रिटिश हुकूमत की आंखों की किरकिरी बना रहा, लेकिन आजादी मिलने के बाद इसके महत्व को भुला दिया गया।
बहुत बाद में उन्हें १९६९ में चौथे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ( पद्म श्री ) के प्रदान किया गया। १९९७ में, भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
श्यामलाल गुप्त इतने स्वाभिमानी थे कि जीवन भर अभावों में रहने के बावजूद कभी किसी से याचना नहीं की। यहां तक कि अर्थाभाव के कारण ही वह अपना इलाज नहीं करा सके और १० अगस्त, १९७७ की रात इस दुनिया से विदा हो गए। यह विडंबना ही है कि जिस व्यक्ति ने २३ साल तक लगातार राष्ट्रीय झंडा को उठाये रखा, उसके सम्मान में एक दिन भी झंडा झुकाया नहीं गया।
यह विद्रूप ही है कि जिस व्यक्ति के लिखे गीत भीड़ को अनुशासित सैनिकों में बदलने की क्षमता रखते थे, उस भारत मां के अमर सपूत को आज देश के कर्णधार भूल चुके हैं। देश का नेतृत्व भले ही श्यामलाल गुप्त के योगदानों को भुला दे, लेकिन आजादी की लड़ाई के इतिहास में उनका नाम सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा और राष्ट्रप्रेमियों के हदय में उनका झंडागीत गूंजता रहेगा।

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