लखनऊ। कांग्रेस अध्यंक्ष राहुल गांधी ने बुधवार को अपनी बहन प्रियंका गांधी को कांग्रेस पार्टी का महासचिव बनाने का ऐलान कर दिया। राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उठाए गए इस कदम की भनक किसी को नहीं लगने दी। इस फैसले की गोपनीयता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तकर प्रदेश के प्रभारी गुलाम नबी आजाद को भी आभास नहीं था कि प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योातिरादित्यक सिंधिया यूपी में उनकी जगह लेने जा रहे हैं। तभी तो आजाद ने गत बुधवार को सुबह 4 बजे लखनऊ के लिए एक कमर्शल फ्लाइट बुक की जहां उन्हेंी पूर्वी और मध्य क्षेत्र के पार्टी नेताओं के साथ बैठक करनी थी। गुरुवार सुबह छह बजे आजाद वापस दिल्लीा लौट गए ताकि पश्चिमी यूपी के नेताओं के साथ पार्टी की रणनीति के बारे में मंथन किया जा सके। दरअसल, लंबे समय से कांग्रेस का यह मानना रहा है कि प्रियंका गांधी उनका ट्रंप कार्ड हैं जो राजनीति की तस्वीकर बदल सकती हैं।
कांग्रेस के सूत्रों और विशेषज्ञों ने बताया कि वर्ष 1998 में रायबरेली और अमेठी बीजेपी का कमल खिला था लेकिन वर्ष 1999 में प्रियंका की मेहनत की वजह से इन दोनों ही सीटों पर कांग्रेस की वापसी हुई। वर्ष 1998 में रायबरेली से राजीव गांधी के रिश्ते् के भाई अरुण नेहरू और अमेठी से संजय सिंह बीजेपी के टिकट पर चुनाव जीते थे। प्रियंका ने वर्ष 1999 के चुनाव के दौरान रायबरेली और अमेठी की जनता से बेहद भावुक अपील की थी। उन्होंीने कहा, ‘क्या आप उस आदमी को वोट देंगे जिसने मेरे पिता की पीठ में छुरा भोंका था।’ प्रियंका की यह अपील काम कर गई और अटल बिहारी वाजपेयी की लहर के बावजूद इन दोनों सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली थी। करीब दो दशक बाद उनकी सक्रिय राजनीति में एंट्री ऐसे समय पर हो रही है जब कांग्रेस संकट के दौर से गुजर रही है। यही नहीं उसके सेकुलर साथियों समाजवादी पार्टी और बीएसपी ने बीजेपी विरोधी गठबंधन से कांग्रेस को अलग कर दिया है।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मानना है कि राहुल गांधी का आक्रामक नेतृत्वे अतत: काम करने लगा है। साथ ही वे यह महसूस करते हैं कि प्रियंका गांधी लोगों में काफी लोकप्रिय हैं। कई कार्यकर्ता उनमें इंदिरा गांधी का चेहरा देखते हैं। कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि यह हरेक राज्यर में कांग्रेस को अपने परंपरागत वोटरों को जोड़ने में मदद करेगा। वर्ष 2004 से वर्ष 2014 तक कांग्रेस के सत्ता में रहने के दौरान प्रियंका गांधी ने खुद को केवल अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित रखा था। हालांकि वह सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ हरेक महत्वकपूर्ण फैसले में हिस्साल लेती थीं। सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2014 में कांग्रेस की डूबती नैया को पार लगाने के लिए प्रियंका आगे आईं थीं। उन्होंलने वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के साथ गठजोड़ कराया और प्रशांत किशोर को भी साथ लाई थीं लेकिन विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद उन्होंीने अपनी गतिविधियों पर विराम दे दिया।
कांग्रेस नेताओं के मुताबिक प्रियंका की दुविधा काफी बड़ी थी। जब-जब पार्टी के अंदर से प्रियंका के राजनीति में आने की बात होती तो वह इसे खारिज कर देती थीं। वह अब सक्रिय राजनीति में आ गई हैं लेकिन इससे राहुल गांधी से उनकी तुलना होगी। वह ऐसा नहीं चाहेंगी। माना जा रहा है कि पार्टी ने बेहद सोच-समझकर यह फैसला लिया है। दरअसल, तीन हिंदी भाषी राज्योंम में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद राहुल गांधी के नेतृत्वअ कौशल पर उठ रहे सवालों पर अब विराम लग गया है और इसी से प्रियंका के राजनीति में आने का रास्ताब साफ हो गया।
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