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मेजबानी के बहाने

यह खबर सुन कर हैरत हुई कि जी-२० की मेजबानी से संबंधित मुद्दों की विपक्ष को जानकारी देने और उसकी राय जानने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इसलिए कि इस सरकार का नजरिया अक्सर विपक्ष को हाशिये पर धकेलने, बल्कि यहां तक कि ‘विपक्ष मुक्त’ भारत बनाने का रहा है। ऐसे में एक अंतरराष्ट्रीय समूह की मेजबानी जैसे सामान्य मसले पर सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, तो साफ है कि सरकार इसके जरिए अपने घरेलू समर्थक वर्ग के बीच विशेष माहौल बनाना चाहती है। मकसद संभवत: यह है कि यह वर्ग अगले साल भर तक इससे जुड़ी चर्चाओं में खोया रहे और इसके जरिए पहले ही बनाई गई यह धारणा और पुष्ट हो कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत विश्व गुरु बन रहा है। वरना, हर साल होने वाली शिखर बैठक अलग-अलग देशों में होती है और इसकी मेजबानी आम तौर पर रोटेशन से तय होती है। मेजबान की इसमें कुछ खास भूमिका तो होती है, लेकिन वह निर्णायक महत्त्व की नहीं होती। इसलिए मेजबान बनने के नाते भारत इस समूह को कोई नई दिशा दे सकेगा या इसकी कमजोर पड़ रही प्रासंगिकता को बहाल कर पाएगा, इसकी कोई संभावना नहीं है।
इस ग्रुप की प्रासंगिकता इसलिए कमजोर पड़ रही है, क्योंकि इसमें शामिल कई प्रमुख देश आज एक दूसरे के विरोधी खेमों का हिस्सा बनते दिख रहे हैं। इस विभाजन का गहरा साया हाल में इंडोनेशिया में हुई शिखर बैठक के दौरान देखने को मिला। वहां यह साफ हो गया कि मौजूदा हालात में यह समूह निर्णायक तो दूर, कोई सामान्य भूमिका निभाने की स्थिति में भी नहीं है। जी-२० का गठन भूमंडलीकृत होती विश्व अर्थव्यवस्था में खड़े होने वाले मसलों के हल पर आम सहमति बनाने के लिए हुआ था। २००८ की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद इसकी विशेष भूमिका बनी, जब इसके वार्षिक शिखर सम्मेलनों का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन अब ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया उलटी दिशा में चल पड़ी है। यूक्रेन युद्ध तो साफ-साफ इस वैश्विक व्यवस्था को तोड़ दिया है। ऐसे में यह समूह अपनी प्रासंगिकता के लिए संघर्षरत है। बहरहाल, यह मोदी सरकार के लिए संभवत: चिंता का पहलू इसलिए नहीं है क्योंकि इसकी मेजबानी के बहाने उसे २०२४ के आम चुनाव के लिए एक बड़ा नैरैटिव खड़ा करने का मौका मिला है।

 

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