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भारत में सरकारी नौकरी की मृग मरीचिका

भारत में सरकारी नौकरी सपने की तरह है। लगभग हर नौजवान सरकारी नौकरी की कल्पना के साथ ही अपने करियर निर्माण की शुरुआत करता है। तभी जब चुनाव लडऩे से पहले पार्टियां वादा करती हैं कि सरकार बनी तो एक करोड़ या दो करोड़ लोगों को हर साल नौकरी मिलेगी तो युवा उस पर भरोसा भी करते हैं। लेकिन अंत में सरकारी नौकरी की उम्मीद मृग मरीचिका साबित होती है। पता चलता है कि उन्होंने अपने जीवन का बेहतरीन समय एक भ्रम का पीछा करने में गंवा दिया और जब भ्रम टूटा तो वे किसी काम के नहीं रह गए। फिर जो निराशा और अवसाद पैदा होता है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है।
केंद्र सरकार ने संसद के चालू सत्र में बताया है कि पिछले आठ साल में उसने सिर्फ ७.२२ लाख लोगों को नौकरी दी है। यानी हर साल औसतन एक लाख से भी कम लोगों को नौकरी मिली है। इससे भी चिंताजनक आंकड़ा यह है कि इन आठ सालों में २२.०५ करोड़ लोगों ने सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया था। सोचें, २२ करोड़ लोगों में से सिर्फ ७.२२ लाख लोगों को नौकरी मिली। सिर्फ ०.३३ फीसदी यानी आवेदन देने वाले एक हजार लोगों में से सिर्फ तीन लोगों को नौकरी मिली। सोचें, बाकी लोग कहां गए होंगे? क्या उनको निजी क्षेत्र में नौकरी मिली होगी या मनरेगा में काम कर रहे होंगे या उन्होंने पकौड़े लगाने जैसा कोई स्वरोजगार शुरू किया होगा?
भारत सरकार ने पिछले आठ साल में जिन ७.२२ लाख लोगों को नौकरी दी है उनमें सबसे ज्यादा १.४७ लाख लोगों को २०१९-२० में नौकरी मिली थी। यानी जिस साल लोकसभा के चुनाव होने थे उस साल में सबसे ज्यादा नौकरी मिली। सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि २०१४-१५ में नई सरकार बनने के बाद से ही सरकारी नौकरियों में कमी आने लगी थी। चुनाव प्रचार में हर साल दो करोड़ नौकरियों का वादा था, लेकिन वास्तव में हर साल एक लाख लोगों को भी नौकरी नहीं मिली। जब सरकारी नौकरी की यह स्थिति है तो निजी सेक्टर में इससे बेहतर की उम्मीद नहीं की जा सकती है। नोटबंदी से लेकर जल्दबाजी में जीएसटी लागू करने और उसके बाद आई कोरोना की महामारी ने अर्थव्यवस्था को जो नुकसान पहुंचाया उससे नौकरी का पूरा परिदृश्य बदल गया। देश में ऐतिहासिक बेरोजगारी की स्थिति है और उसी समय सांप्रदायिक विभाजन के एजेंडे से चिंगारी भड़काने की कोशिशें हैं। इससे देश के सामने गंभीर संकट पैदा हो सकता है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या एक करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष सरकारी नौकरी देना किसी भी सरकार के लिए संभव है अथवा नहीं? यदि नहीं तो किसी भी राजनीतिक दल द्वारा इस प्रकार के वादे क्या उन युवाओं के साथ छल नहीं है तथा उनके प्रति यह एक गंभीर अपराध नहीं है? प्रतिवर्ष सैकड़ों हजारों युवा सरकारी नौकरी ना मिल पाने की अवसाद में मानसिक संतुलन खो देते हैं अथवा नशे या मौत को गले लगा लेते हैं। इन सब का जिम्मेदार क्या इस प्रकार के झूठे वादे करने वाले नेता गण नहीं है? आवश्यकता इस बात की है कि इस तरह की झूठी तसल्ली और वादों के बजाय सार्थक पहल की जाए और युवाओं को काबिल बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाए। यदि युवा काबिल होंगे तो न तो वह परिवार और देश समाज पर बोझ होंगे और ना ही सरकार को उनके लिए रोजगार का इंतजाम करने में खटना पड़ेगा। लेकिन शायद देश के कर्णधारों को राजनीति और अपने राजनैतिक हित इन युवाओं के जीवन से अधिक प्रिय हैं। इसीलिए सरकारी नौकरी का सपना आज भी भारतीय युवाओं की प्रतिभा और जीवन को लील रहा है।

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