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भारत में राष्ट्रपति चुनाव का वास्तविक मुद्दा

राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की सत्ता पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू से यह मांग दिलचस्प है कि वे रबर स्टांप राष्ट्रपति नहीं बनेंगी। सिन्हा चूंकि उनके प्रतिद्वंद्वी हैं, इसलिए मुर्मू को इस मुद्दे पर कठघरे में खड़ा करने की उनकी रणनीति समझी जा सकती है। लेकिन अगर इस मांग का सार ढूंढने की कोशिश की जाए, तो असल सवाल यह उठेगा कि आखिर मुर्मू को सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने किस आधार पर देश के सर्वोच्च पद के लिए उम्मीदवार बनाया है। संभवत: राजनीति में उनकी कम पहचान (लो प्रोफाइल) और आदिवासी समुदाय से उनका आना ये दो पहलू हैं, जिनकी वजह से निर्णय उनके पक्ष में गया। इन दोनों आधारों पर राष्ट्रपति उम्मीदवार का चयन सिर्फ भाजपा ने किया हो, यह नहीं कहा जा सकता। बल्कि उसके पहले भी इसका एक इतिहास है। बहरहाल, ना तो पहले ऐसा हुआ और ना अब ऐसा होगा कि किसी प्रतीकात्मक कारण से ऊंचे पद पर किसी को बैठा देने से किसी समुदाय विशेष का भला होगा- या चूंकि वह व्यक्ति उपेक्षित और शोषित माने जाने वाले समुदाय से आता है, इसलिए उससे किसी अलग प्रकार के राजनीतिक व्यवहार की उम्मीद रहेगी।
भाजपा संभवत: राष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए आंकड़े जुटा लेगी। इस तरह द्रौपदी मुर्मू भारत की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बन जाएंगी। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि देश में आदिवासियों के खिलाफ अत्याचार बढ़ता ही जा रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराध के अलग से आंकड़े इकठ्ठा करता है। ब्यूरो की रिपोर्टें हकीकत का पर्दाफाश करती है। ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक २०२० में देश में अनुसूचित जनजाति के लोगों के साथ अत्याचार के ८,२७२ मामले दर्ज किए गए, जो २०१९ के मुताबिक ९.३ प्रतिशत का उछाल है। अभी तीन दिन पहले ही मध्य प्रदेश में एक आदिवासी महिला पर जमीन के विवाद को लेकर कुछ लोगों ने उनके खेत में हमला किया और उनके शरीर पर डीजल छिड़क कर आग लगा दी। प्रश्न है कि रामप्यारी जैसी महिलाओं को मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से क्या मिलेगा? मौजूदा चुनाव के संदर्भ में यही सवाल सबसे अहम है, जिसे बार-बार पूछा जाना चाहिए।

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