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भारत को ज़बर्दस्त अमेरिकी छूट -वेद प्रताप वैदिक

जब भारतीय मूल के नागरिक विदेशों में राज-काज के हिस्सेदार होते हैं तो वे कैसा चमत्कार कर देते हैं। आजकल ऋषि सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने की बात तो चल ही रही है लेकिन अमेरिका के प्रतिनिधि सदन (लोकसभा) के एक भारतीय सदस्य ने वह काम कर दिखाया है, जो असंभव-सा लगता था। रो खन्ना नामक सदस्य ने अमेरिका के राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम को भारत पर लागू होने से रूकवा दिया। यह अधिनियम चीन, उत्तरी कोरिया, ईरान आदि देशों पर बड़ी कड़ाई के साथ लागू किया जा रहा है।
इस प्रतिबंध को ‘काट्सा’ कहा जाता है। इसके मुताबिक जो भी राष्ट्र रूस से हथियार आदि खरीदता है, उससे अमेरिका किसी भी प्रकार का लेन-देन नहीं करेगा। तुर्की पर भी काफी दबाव पड़ रहा है, क्योंकि वह रूसी प्रक्षेपास्त्र खरीदना चाहता है। जहां तक भारत का सवाल है, रूस तो भारत को सबसे बड़ा हथियार और सामरिक सामान का विक्रेता है। वह आज से नहीं, शीतयुद्ध के जमाने से है।
अमेरिका के कई विद्वान और नीति-निर्माता भारत को रूस का पिट्ठू कहते रहे हैं। आजकल भारत ने रूस के साथ एस-४०० प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सौदा किया हुआ है और यूक्रेन संकट के बाद से रूस भारत को तेल भी बड़े पैमाने पर सस्ते दामों पर मुहय्या करवा रहा है। इसके बावजूद रो खन्ना द्वारा लाया गया प्रस्ताव अमेरिकी निम्न सदन ने प्रचंड बहुमत से पारित कर दिया है। राष्ट्रपति जो बाइडन ने दबी जुबान से इसका इशारा किया था, वरना अमेरिकी राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह स्वविवेक के आधार पर किसी देश को इस प्रतिबंध से मुक्त कर सकता है।
अमेरिका ने भारत के पक्ष में यह एतिहासिक कदम तो उठाया ही, इसके पहले यूक्रेन के सवाल पर उसकी तटस्थता का सम्मान भी किया। इसका मूल कारण यह है कि पश्चिम एशिया और सुदूर-पूर्व एशिया के दो चौगुटों में भारत और अमेरिका कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ काम कर रहे हैं। दोनों देशों में सामरिक सहकार तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। २००८ में भारत-अमेरिकी सामरिक सौदा सिर्फ ५० करोड़ डालर का था। वह अब बढ़कर २,००० करोड़ डॉलर का हो गया है।
इस समय रूस और चीन मिलकर ऐसी नीति चला रहे हैं, जैसे वे किसी गठबंधन के सदस्य हों। ऐसे में अमेरिका के लिए भारत को साथ रखना बेहद जरुरी है। भारत और चीन के रिश्तों में इधर जो खटास पैदा हुई है, वह अमेरिका के लिए स्वादिष्ट चटनी की तरह है। दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों में मैत्री-भाव बढ़े, इससे अच्छा क्या हो सकता है।

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