फ्रांस में अधिकतर विद्युत उत्पादक कंपनियां सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। फ्रांस सरकार इन कंपनियों को रियायती दर पर ऊर्जा बेचने का निर्देश दे सकती है। तो फिलहाल ये कंपनियां लागत मूल्य से एक चौथाई कम पर ऊर्जा की सप्लाई कर रही हैं।
यह एक ऐसा फर्क है, जिस पर हम सबको ध्यान देना चाहिए। यह एक नीतिगत अंतर है, जिसके परिणाम ने अब ध्यान खींचा है। यह तो यह जग-जाहिर है कि ब्रिटेन के लोगों को ऊर्जा की अत्यधिक महंगाई का सामना करना पड़ रहा है। अगली सर्दियों में वहां प्राकृतिक गैस और बिजली का औसत बिल ४,००० पाउंड से ऊपर जा सकता है। यानी १२ महीने पहले ब्रिटेन के लोग गैस और बिजली के लिए जो कीमत चुका रहे थे, उससे तीन गुना ज्यादा कीमत उन्हें चुकानी होगी। लेकिन ब्रिटेन के पड़ोसी देश फ्रांस में ऐसी हालत नहीं है। ध्यान देने की बात यह है कि यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से दोनों देशों में रूसी गैस की सप्लाई घटी है। मगर फ्रांस में परिवारों के औसत ऊर्जा बिल में पांच प्रतिशत से भी कम बढ़ोतरी हुई है। जबकि ब्रिटेन में सबसे गरीब घरों के बिल में भी- जिन्हें सरकारी सहायता मिलती है- सर्दियों में १५ प्रतिशत से अधिक बढ़ोतरी हो जाएगी। तो जाहिर है, यह अंतर चर्चा का विषय बना है। कुछ रोज पहले इस बारे में एक अध्ययन रिपोर्ट आई। उससे पता चला कि आखिर ये फर्क क्यों है। स्पष्ट हुआ कि अंतर का कारण दोनों देशों में मार्केट रेगुलेशन की नीतियां हैं।
ब्रिटेन की नीति ऊर्जा कंपनियों के हक में है। वहां कंपनियों को छूट है कि ऊर्जा प्राप्त करने की दर बढ़े तो वे अपने मुनाफे को अप्रभावित रखते हुए दाम बढ़ाएं। मगर फ्रांस सरकार ने कीमत तय करने में अपनी भूमिका बनाए रखी है। फ्रांस में भी बाजार अर्थव्यवस्था है। लेकिन वहां ज्यादातर बिजली उत्पादक कंपनियां सार्वजनिक क्षेत्र में हैं। फ्रांस में ऊर्जा उत्पादक कंपनियां बिजली की बिक्री वितरण कंपनियों को करती हैं। लेकिन फ्रांस सरकार सरकार पब्लिक सेक्टर की ऊर्जा उत्पादक कंपनियों को रियायती दर पर ऊर्जा बेचने का निर्देश दे सकती है। तो फिलहाल ये कंपनियां लागत मूल्य से एक चौथाई कम पर ऊर्जा की सप्लाई वितरण कंपनियों को कर रही हैं। इस वजह से फ्रांस के लोगों राहत मिली हुई है। अब यह सबके लिए विचारणीय है कि इनमें से कौन-सा मॉडल जनता के हित है?
जाहिर है कि फ्रांस का मॉडल जनहित में प्रतीत होता है लेकिन लंबे समय में यह निश्चित ही विनाशकारी सिद्ध होगा। क्योंकि सरकार द्वारा घाटे की प्रतिपूर्ति के लिए या तो बाजार से कर्ज लेना होगा या जनता पर अतिरिक्त कर लगाने होंगे। दोनों ही स्थितियों में परिणाम अंततः फ्रांस की जनता को ही भुगतने होंगे । दूसरी ओर ब्रिटिश मॉडल के बारे में कहा जा सकता है कि यह निर्दयी होता है। लेकिन सरकार चाहे तो इस प्रकार के अवसर तथा प्रयास किए जा सकते हैं कि यह महंगाई लंबे समय तक न झेलनी पड़े। वैसे भी युद्ध तथा अन्य संकट लंबे समय तक नहीं रहते जिससे आगे जाकर स्थिति सामान्य होने की आशा बनी रहती है।
यह बात भारत के परिपेक्ष में एक उदाहरण की तरह रखी जा सकती है जहां आजकल रेवड़ी कल्चर के बारे में चर्चा जोरों पर है। यहां भी जनहित के नाम पर वोट बटोरने के लिए लोगों को मुफ्त सुविधाएं बैठकर लगाया जाता है। भले ही इसके कारण कर्ज बढ़े या करों के बोझ में जनता दब जाए। केंद्र तथा राज्यों में कर्जे का एक बड़ा हिस्सा इसी तरह की लोकलुभावन नीतियों का परिणाम है। हालांकि जनहित में स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी सुविधाएं समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए मुफ्त दी जा सकती हैं किंतु हर सुविधा मुफ्त करने के बजाए लोगों को इतना समर्थ बनाया जाए कि वह इन सुविधाओं को बाजार मूल्य पर खरीद सकें। इससे न केवल सरकारों का बोझ कम होगा बल्कि जनता में भी आत्मसम्मान तथा देश भक्ति की भावना प्रबल होगी। लेकिन इसके लिए दूरदृष्टि और मजबूत इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है जो भारत के अधिकांश राजनेताओं में दूर दूर तक देखने को नहीं मिलती।
