ब्राजील के राष्ट्रपति चुनाव में लुइज इनेसियो लूला दा सिल्वा की जीत न सिर्फ इस देश, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए भी दूरगामी महत्त्व की है। हालांकि इस बार लूला ने मध्यमार्गी प्लैटफॉर्म पर चुनाव लड़ा, इसके बावजूद उनकी छवि एक बड़े वामपंथी नेता की है। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने जो बातें कहीं, उनसे भी इस बात का साफ संकेत मिला कि वे अपने नए कार्यकाल में पुराने दौर की नीतियों पर अमल जारी रखेंगे। इसके पहले लूला २००३ से २०१० तक ब्राजील के राष्ट्रपति थे। उस दौर को गरीबी और गैर-बराबरी में भारी गिरावट और कल्याणकारी योजनाओं के कई नए सफल प्रयोगों के लिए याद किया जाता है। इस बार उनकी जीत का महत्त्व यह भी है कि लैटिन अमेरिका में पिछले कुछ वर्षों से चल रही वामपंथ की लहर अब इस इलाके के सबसे बड़े देश में भी कामयाब हो गई है। इसके पहले अर्जेंटीना, कोलंबिया, पेरू, चिली, होंडूरास और मेक्सिको में भी वामपंथी नेता चुनाव जीत चुके हैं। लूला ने इन तमाम देशों को लेकर दक्षिण अमेरिका का अलग व्यापार क्षेत्र बनाने का संकल्प जताया है। इसके अलावा उन्होंने दक्षिण अमेरिका के लिए अलग मुद्रा तैयार करने की योजना भी पेश की है, ताकि वहां बिना डॉलर पर निर्भर रहे कारोबार हो सके।
लूला की जीत से ब्रिक्स में भी एक नई ताकत आने की उम्मीद की जाएगी। लूला ब्राजील- रूस- भारत- चीन- दक्षिण अफ्रीका के इस मंच के संस्थापकों में एक थे। जिस समय ब्रिक्स के विस्तार की चर्चाएं तेज हैं, उस समय लूला के राष्ट्रपति बनने से इस मंच को नई दिशा मिलेगी। इस बीच लूला के सामने चुनौती देश के अंदर अपने गठबंधन सहयोगियों को साथ बनाए रखने की होगी। लूला ने इस बार मध्यमार्गी दलों और कुछ ऐसी पार्टियों को भी अपने गठबंधन में शामिल किया, जिनका रुझान दक्षिणपंथ की तरफ है। चुनाव में ये रणनीति कामयाब रही। दरअसल, यह लूला की मजबूरी थी कि वे गठबंधन बनाने में व्यावहारिक नजरिया अपनाएं। बहुत से मतदाता इस बार वोट डालने के लिए किसी उम्मीद की वजह से नहीं, बल्कि बोल्सोनारो से मुक्ति पाने के मकसद से गए। ये सब उनके साथ रहें, यही सुनिश्चित करना लूला की रणनीति थी।



