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प्रश्न तो तथाकथित मॉडल का है !

ये विडंबना ही है कि जिस रोज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वडोदरा जाकर यह कहा कि भारत जल्द ही दुनिया में यात्री और मालवाही विमानों के उत्पादन का केंद्र बन जाएगा, उसी रोज यात्रियों को मोरबी में मच्छू नदी पार कराने के लिए पुनरुद्धार के बाद चार दिन पहले ही खोला गया झूलता पुल टूट कर गिर गया। इस हृदय विदारक दुर्घटना में लगभग सवा सौ लोगों की जान गई है। एक और विडंबना यह है कि २०१६ में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कोलकाता में एक फ्लाईओवर ढह गया था, तब मोदी ने उसे ममता बनर्जी सरकार के कथित भ्रष्टाचार से जोड़ा था। उन्होंने कहा था कि ये सरकार बनी रही, तो इस तरह पूरा पश्चिम बंगाल टूट जाएगा। अब गुजरात में चुनाव से ठीक पहले ऐसी ही घटना हुई है, तो इस पर किसकी जवाबदेही बनती है, यह प्रश्न जरूर पूछा जाएगा। अगर इस सवाल की हम पड़ताल करें, तो जवाबदेहियों के तीन स्तर नजर आते हैँ। पहली जवाबदेही बेशक उस निजी कंपनी की है, जिसने ब्रिटिश राज में बने इस पुल का पुनर्निर्माण किया।
इस बीच मोरबी का नगर प्रशासन यह कर अपनी जवाबदेही नहीं छुड़ा सकता कि उस कंपनी ने बिना सुरक्षा मंजूरी लिए पुल को इस्तेमाल के लिए खोल दिया। अगर किसी शहर या राज्य में कोई भी एजेंसी ऐसा करने की छूट आखिर कैसे दी जा सकती है? अगर ऐसा हुआ, तब तो यह और भी संगीन मामला है। बहरहाल, इस मामले में एक जिम्मेदारी उस विकास मॉडल की भी है, जिसमें सार्वजनिक धन या सेवाएं निजी कंपनियों को सौंप कर जनता की जान-माल की कीमत पर बेलगाम मुनाफा कमाने की छूट दे दी जाती है। यह मॉडल पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के नाम से चर्चित रहा है। ताजा हादसे के बाद अगर इस मॉडल के अनुभव का ठोस आकलन नहीं किया जाता है और इस पर जरूरी प्रश्न नहीं उठाए जाते हैं, तो मोरबी में हताहत हुए लोगों को लेकर जताया जा रहा दुख निरर्थक बना रहेगा। ये बात ध्यान में रखने की है कि अपने देश में जवाबदेही तय करने की कमजोर रही परंपरा हर कुछ दिन पर ऐसा हादसा होते रहने का प्रमुख कारण है।

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