लगभग हर वर्ष ही जब १५ अगस्त स्वतंत्रता दिवस आता है, तो उन लोगों की याद बरबस ताजा हो जाती है जिनके कारण हमें यह दिन देखने को मिला। मन बरबस ही उन सहस्त्रों के प्रति नत मस्तक हो जाता है पर उनमें से जो चेहरा उभर कर आता है, वो, वो, होता जिनसे आपका सानिध्य रहा हो जिसको आपने करीब से देखा हो, जाना हो। मैं उस पीढ़ी का हूँ जिसने अल्पायु के कारण स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया पर उन महायोद्धाओं के संघर्ष को देखा और अधिक नहीं तो कम से कम उनकी चरणरज शिरोधार्य का सौभाग्य प्राप्त किया। बाल्यकाल स्मृति में मुझे उन दिनों के संघर्ष का एक विभत्स दृश्य अभी तक याद है। घर के सामने सड़क पर एक जुलूस निकल रहा था। ….जिन्दाबाद..जिन्दाबाद। होकर रहेगा आदि की गूँज, तभी भीड़ को चीरती घोड़ों पर पुलिस ने आकर लोगों पर (केन) छड़ी और लाठियों की बारिश कर दी। एक गठरी वाला लाठी खाकर गिरा तो उठा ही नही। हम दो भाई घबराकर घर के अंदर दुबक गये। यह शायद भोपाल के विलीनीकरण आन्दोलन का दृश्य था। उन दिनों को याद करते भोपाल का जो प्रमुख चेहरा मन मस्तिष्क पर उभर कर आता है वह स्वर्गीय श्री विचित्र कुमार सिन्हा का जिन्हें मैंने करीब से देखा जाना। एक सौम्य शांत धीर गंभीर व्यक्तित्व के धनी। मोहल्ले में ही रहते थे माँ को बहन मानते थे हम मामाजी कहते थे। उनके सबसे बड़े पुत्र स्व.श्री मणिकान्त सक्सेना मेरे सहपाठी एवं बाल सखा थे अत: मामा जी को और करीब से देखने जानने का अवसर मिला। उनका जन्म यूं तो १४ फरवरी १९२४ को गुना में हुआ था परन्तु वे गुना के बाहर कई गुना देश के होकर रहे। साहस और कलम के धनी तो जन्मजात थे। बचपन में पराधीनता के विरूद्ध कविता में उनके तेवर पहली बार संज्ञान में आये जब उनकी पुस्तक ‘विद्रोह’ पढ़ी। उनके विद्रोही तेवर के लेखन स्थानीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशन पर उन्हें बन्दी बनाकर होशंगाबाद जेल में डाल दिया गया। शरीर बन्दी बन जाता है पर मन कहाँ बन्दी होता है। भोपाल आकर हरिजन पाठशाला स्थापित की, विद्रोह स्वर और तीखे हो गये, मंच से गूंजे काव्य की परिणिती तत्कालीन नवाब शाही ने शहर बदर किया तो उज्जैन चले गये।
उज्जैन पहुँचकर उनने १९४४ में जय महाकाल पत्र में पांडे बेचैन शर्मा उग्र जी के साथ सम्पादन कार्य किया, यहां उनके विचित्र स्वभाव एवं लेखन के कारण उग्र जी ने उन्हें विचित्र कुमार उद्बोधन दिया और वे विचित्र कुमार हो गये। १९४६ में उन्होंने दिल्ली का रूख किया और शास्त्री जी के मार्ग दर्शन में स्वतंत्रता के आन्दोलन का हिस्सा बने। विद्रोह काव्य संग्रह के प्रकाशन पर पुन: बन्दी बना कर बेगमगंज के जंगलों में छुडवा दिया गया। उनके जीवन की संघर्ष यात्रा याद करते हुए समय जैसे रूक सा जाता है, परन्तु आपका रूकने का मन ही नहीं करता। आपने सामाजिक दायित्व को अपनी प्रखर लेखनी के माध्यम और पत्रकारिता के अनुभव को आधार बनाकर हस्तलिखित पत्र ‘मित्र देश’ निकाला प्रजापुकार का सम्पादन तथा १९५४ में ‘पंचशील दैनिक’ का प्रकाशन किया। ‘हिन्दी ब्लिट्ज’ उनका अग्नी प्रहार समाचार पत्र था। मेहनती इतने कि श्रम की देवी भी हाथ जोड़ लें। मैने स्वयं उन्हें समाचार पत्र के मुद्रण, प्रकाशन के सभी कार्य करते देखा। वे जहां जिद्दी विद्रोही स्वतंत्रता के सेनानी थे वही एक समर्पित पति पिता समाज सेवी, साहित्य सेवी, पत्रकार भी थे। उनका जीवन जहां बसन्तोत्सव से प्रारंभ हुआ वहीं देवलोकगमन का दिन भी ५ सितम्बर था , शिक्षक दिवस जो राष्ट्र के उत्थान शिक्षा सम्मान का दिन है।
निर्वाण दिवस पर श्रद्धासुमन के साथ
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