पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को सजा की बीच अवधि में रिहा करने का फैसला सिरे से आपत्तिजनक है। इससे लोगों ने यह संदेश ग्रहण किया है कि भारत में अब सजा और इंसाफ के पैमाने ठोस साक्ष्य और अपराध की गंभीरता नहीं रह गए हैं। बल्कि सियासी तकाजों से यह तय होने लगा है कि किस अपराध को अधिक गंभीर और किसे भुला दिया जाने लायक माना जाएगा। अफसोसनाक यह है कि यह धारणा बनाने में सुप्रीम कोर्ट की इस मामले में सामने आई राय ने भी भूमिका निभाई है। जिस देश में आज भी मृत्यु दंड का प्रावधान हो और आम जनमत इस सजा को कानून की किताब में बनाए रखने का समर्थन करता हो- और साथ ही जहां अनगिनत लोग बिना जुर्म साबित हुए मुकदमे की कार्यवाही लटके रहने की वजह से जेल में बंद हों, वहां एक जघन्यतम अपराध में शामिल मुजरिमों के प्रति दया या उदारता भाव दिखाना कतई तार्किक नहीं हो सकता।
अगर सर्वोच्च न्यायालय सचमुच मानता है कि एक अवधि तक की सजा काटने के बाद किसी को जेल में नहीं रहना चाहिए, तो उसे फिर उसे ये पैमाना सब पर लागू करना चाहिए। पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद के आरोप में जेल में रखे गए लोग हों या उत्तर-पूर्व की चरमपंथी गतिविधियों और नक्सली हिंसा में शामिल रहे लोग- क्या उनके जुर्म एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या से ज्यादा संगीन हैं? अगर ऐसे तमाम मामलों के लिए न्याय और सजा पर समान नजरिया सामने नहीं आता है, तो यही माना जाएगा कि राजनीतिक माहौल के हिसाब से कुछ मामलों को चुन कर उनमें राहत देने का नजरिया हावी हो गया है। यह इस देश के भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं होगी, अगर लोगों में न्यायिक फैसलों से ऐसी राय घर बनाने लगेगी। भारतीय न्यायपालिका ने खुद अपने फैसलों से भारतीय संविधान के मूल ढांचे की रक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली थी। मूल ढांच के साथ-साथ संविधान की मूल भावना भी अंतर्निहित है। यह भावना कानून के राज और सबसे समान बर्ताव का भरोसा जगाती है। क्या राजीव गांधी के हत्यारों को छोडऩे से यह भरोसा मजबूत हुआ है?



