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नीति नाकाम, गहरे दुष्परिणाम

जब महंगाई काबू में नहीं आ रही है, तो प्रश्न उठेगा कि आखिर ब्याज दर बढ़ाने की नीति का क्या हासिल है? इसका एक परिणाम यह है कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों का संकट बढ़ गया है।
ब्याज दर बढ़ाने की अपनाई गई नीति से अलग लगातार तीन तिमाहियों तक मुद्रास्फीति घट कर तय सीमा के अंदर नहीं आती है, तो आर्थिक जगत में इस नीति को नाकाम घोषित कर दिया जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक की यह नीति दो तिमाहियों तक नाकाम रही है। खुद रिजर्व बैंक का अनुमान है कि अगली तिमाही में भी खुदरा महंगाई दर लगभग ७.५ प्रतिशत रहेगी। रिजर्व बैंक की मुद्रास्फीति नियंत्रण नीति के तहत इस दर को २ से ४ फीसदी तक सीमित रखने का लक्ष्य तय रहा है। ६ प्रतिशत मुद्रास्फीति को सहनशीलता की सीमा के अंदर माना जाता है। लेकिन पिछली दो तिमाहियों से ये दर ६ प्रतिशत के ऊपर है। चार फीसदी के ऊपर हुए तो ३३ महीने गुजर चुके हैँ। तो अब यह प्रश्न उठेगा कि आखिर ब्याज दर बढ़ाने की नीति का क्या हासिल है? इसका एक परिणाम यह है कि सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों का संकट बढ़ गया है।
अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय बाजार में कमोडिटी की कीमत बढऩे के कारण इन उद्योगों की इनपुट लागत बढ़ी है। जबकि बाजार में मांग ना होने की वजह से उनके लिए अपने उत्पादों की कीमत उसी अनुपात में बढ़ाना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। अब ब्याज दर बढऩे से कोरोना काल में आसान शर्तों पर लिए गए कर्ज को चुकाना भी महंगा हो गया है। तो ऐसी आशंकाएं बड़े पैमाने पर जताई जा रही हैं कि बड़ी संख्या में ऐसे कारोबार बंद हो सकते हैं। नोटबंदी और पेचीदा जीएसटी की मार के कारण पहले ही कमजोर हो चुके इस सेक्टर के सामने ये नई समस्या खड़ी हो गई है। गौरतलब है कि २०१९ में सरकार ने इस सेक्टर के बिजनेस को आसान शर्तों पर कर्ज देने की नीति खत्म कर दी थी। यानी अब उन्हें ऋण उसी दर पर मिलता है, जो रिजर्व बैंक रेपो रेट से तय होता है। तो अब विचारणीय प्रश्न है कि जब ब्याज दर बढ़ाने से महंगाई नहीं घट रही है, जबकि लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर उलटा असर हो रहा है, तब क्या इस नीति को जारी रखना बुद्धिमानी का काम है?

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