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तन्हाइयों के दस्त में आबाद कौन था—! जरा सोच तेरे बाद -अब कौन है–!? आ देख मुझ पे वक्त ने क्या क्या सितम किए-! सबने भुला दिया है– किसे याद कौन है!!—? – जगदीश सिंह सम्पादक

लम्हा लम्हा गुजरती जिन्दगी धीरे धीरे मन्जिल के तरफ झंझावात करती आस्था को साथ लिए बिश्वास की डोर पकड़े तमाम सवालों से जकड़े निरन्तर आगे बढ़ती जा रही है।जीवन के उपवन को संजोते कुछ पाते बहुत कुछ खोते पल पल कल बल छल के शानिध्य में कभी खुशी तो कभी मायूसी का दर्द लिए फर्ज के साथ सब कुछ आत्मसात करते मरते दम तक आदमी अपनों के भविष्य के लिए दिन रात भाग दौड़ में लगा रहता है उसे पता ही नहीं चलता है की खुशियों का जमाना कब साथ छोड़ दिया! जिसके लिए सब कुछ किया वो कब मुंह मोड़ लिया!गुरुबत का फैसला मानकर कर हौसला रखना अपनी मजबूरी भी होती है!जीने के लिए चाहत जरुरी भी होती है?जरा गौर करें ख्वाबों को दिल मे लिए जि़न्दगी हर वक्त खुशहाली के पीछे पीछे भागती रहती है!प्रारब्ध के खेल में कभी धूप कभी छांव में लुका छिपी का तमाशा कभी आशा तो कभी निराशा के आवरण में चलता रहता है!और इसी के साथ अनमोल लम्हें धीरे धीरे सरकते रहते हैं!जब सब कुछ पाने की तमन्ना में जीवन की दोपहरी गुजरकर शाम की दस्तक देती है तब आखरी मंजिल का एहसास बधवास कर देता है!मगर तब तक तो बहुत देर हो चुकी होती है!सब कुछ पराया लगता है!दिन तो लोगों के बीच किसी तरह कट जाता है मगर रात की तन्हाई अश्कों की तरुणाई में सिसकन लिए गुजरे पलों की याद को आत्मसात कर भोर तक दिल को झकझोर कभी रूलाती तो कभी भाव विभोर कर अपनों के बीच गुजरे कर्ण प्रिय शोर को ताजा कर जाती है!जीवन के उपवन की महकती सुगन्ध जब गुजरे पलों के सतह से टकरा करअपनी महक बिखेरती है उस समय अनायास ही दिल उदास हो उठता है जिनके शानिध्य में सपने देखा आज वही अपने तन्हा छोड़कर स्वार्थ की दहकती ज्वाला में तिल तिल कर मरने को विवश कर चले गए!कुछ दिन में साल बदल जायेंगी! नव वर्ष दस्तक देने लगा है! बसन्त के आगमन की भीनी सुगन्ध अभी से मदमस्त पवन की संगति पाकर फैलने लगी है!उम्र के पड़ाव का एक अहम मुकाम गुजर गया!नव वर्ष में उत्कर्ष के साथ गुजरते वर्ष के संघर्ष की स्वीकारोक्ति को साथ लिए जि़न्दगी के किताब में एक अध्याय जुड़ जायेगा—–!मुस्कराते भगवान भास्कर प्रकृति के परम्परा को प्रवाहमान करने का उदाहरण प्रस्तुत करते सदियों से चली आ रही ब्यवस्था को आस्था का सम्वर्धन देते नियमित परागमन के सिद्धांत काअनुमोदन करते उदय के बाद अस्त होना निश्चित है!जीवन का यही प्रायश्चित है!यही इस नश्वर संसार का अकाट्य सत्य है!जो आया है उसको माया लोक से विलोपित होकर परमात्मा में समाहित हो जाना ही नियति है।सत्कर्म को चक्रबृधि बनाकर जिसने सुख सम्बृधि त्याग दिया उसी का आखरी सफर भी सुहाना रहा रहा। गुजरते वक्त को बाय बाय आने वाले वक्त को सलाम!–!! सबका मालिक एक साईराम।

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