भारत में हेट स्पीच के मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने जो टिप्पणियां कीं, उनसे हर विवेकशील व्यक्ति सहमत होगा। सुप्रीम कोर्ट के इस अफसोस में तमाम विवेकशील लोगों की भावनाओं का इजहार हुआ कि २१वीं सदी में हमारा समाज कैसी जुबान बोलने के स्तर तक गिर गया है। न्यायमूर्तियों ने संविधान के अनुच्छेद ५१ का जिक्र किया, जिसमें भारत को वैज्ञानिक सोच का देश बनाने का लक्ष्य रखा गया था। आज जबकि इस सोच पर चौतरफा आक्रमण हो रहा है, तो सुप्रीम कोर्ट का उससे चिंतित होना लाजिमी है। तो कोर्ट अब पुलिस को आदेश दिया है कि हेट स्पीच की घटना होते ही वह अपनी पहल पर मामले दर्ज करे- यानी वह इस बात के इंतजार में ना बैठी रहे कि कोई केस दर्ज कराएगा, तब वह जांच-पड़ताल शुरू करेगी। सुप्रीम कोर्ट की सदिच्छा के लिहाज से यह आदेश उसका एक उचित हस्तक्षेप मामूल पड़ता है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या कोर्ट की ये सदिच्छा पूरी होगी? मन में यह सवाल उठने के पीछे वजह यह है कि पुलिस कोई स्वतंत्र और संवैधानिक भावना से काम करने वाली एजेंसी नहीं है। बल्कि वह राज्य सरकार के मातहत है और अक्सर सरकार की राजनीतिक सोच या हित के अनुरूप काम करती नजर आती है।
अगर सत्ताधारी नेता ही हेट स्पीच को अपनी सियासी पूंजी मानते हों, तो फिर पुलिस उनकी इच्छा के खिलाफ जाकर कार्रवाई करेगी, यह उम्मीद रखना शायद भोलापन ही हो सकता है। फिर पुलिसकर्मी सामाजिक पूर्वाग्रहों से प्रेरित नहीं रहते, यह मानने की भी कोई वजह नहीं है। आज जिन पूर्वाग्रहों को एक राजनीतिक परियोजना के रूप में फैलाया गया है, उससे पुलिसकर्मी प्रभावित हुए नजर आते हैं। ऐसे में यह बड़ा सवाल उठता है कि वे हेट स्पीच को वे कानून और संविधान की भावना के मुताबिक समझेंगे या परिभाषित करेंगे, अथवा जिस एकतरफा सोच का आज वर्चस्व है उससे प्रभावित होकर काम करेंगे? जब तक इन प्रश्नों पर स्पष्टता नहीं बनती, वास्तविक आस जगना संभव नहीं है। इसीलिए कोर्ट की टिप्पणियां सुनने में अच्छी लगीं, आदेश भी उचित लगा, लेकिन उससे वास्तविक फर्क पडऩे की कोई ठोस संभावना नहीं उभरी है।
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