ऑटो मोड में ही देश की विदेश और सामरिक नीति है। वैसे इसमें यों भी सब ७५ साल से ऑटो मोड में है। निर्गुट आंदोलन कब का समाप्त हो चुका है फिर भी भारत की विदेश नीति उसी ढर्रे पर चल रही है। रूस ने यूक्रेन पर हमला किया तो लोकतंत्र और अहिंसा की तमाम दुहाई के बावजूद भारत से यह कहते नहीं बना कि रूस हमलावर है और उसे युद्ध तुरंत बंद करना चाहिए। इस मामले में भी निर्गुट राजनीति कि भारत रूस के साथ भी है और यूक्रेन के साथ भी। इस कूटनीति से भारत लगातार अलग थलग होता जाएगा। ऐसे ही चीन को लेकर भारत की नीति है। चीन १९५८ से भारत की जमीन कब्जा करता जा रहा है। वह १९५८ में कब्जाई जमीन पर पुल बना रहा है और भारत सरकार कह रही है कि वह उस पुल पर नजर रखे हुए है।
चीन पूर्वी लद्दाख से लेकर डोकलाम के ट्राई जंक्शन तक और अरुणाचल प्रदेश के अंदर तक अंदर तक अपना दावा कर रहा है या दखल बढ़ा रहा है। जिस रफ्तार से भारत के प्रति उसकी विस्तारवादी नीतियां बढ़ रही हैं उसी रफ्तार से उसके साथ भारत का कारोबार भी बढ़ रहा है। एक तरफ वह भारत की जमीन खा रहा है तो भारत उसके साथ कारोबार बढ़ा रहा है। ऐसे ही रूस के प्रति भारत की नीति वहीं चल रही है, जो नेहरू के जमाने से चली आ रही है। वह चीन का पिछलग्गू बन गया है फिर भी भारत को उसी के साथ हथियार का सौदा करना है। सो, कुल मिला कर अमेरिका हो या रूस या चीन भारत की विदेश नीति उसी ढर्रे पर चल रही है, जो ढर्रा आजादी के तुरंत बाद देश की पहली सरकार ने बनाया था। उससे रत्ती भर इधर-उधर होने की हिम्मत सरकार नहीं जुटा पा रही है।
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