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आठ अरब समस्याएं!

मनुष्य ने जो किया है और वह जो करता है उसमें उसकी आदिम और यांत्रिक क्रियाओं का बड़ा रोल है। मनुष्य ने अपनी प्रकृति में और नेचर बनाम नर्चर के परस्पर विरोधी खिंचावों में आत्मघाती दुष्चक्र बनाए है।.. न यह सोचना गलत है कि आठ अरब लोग पृथ्वी की आठ अरब समस्याएं है और न यह मानना गलत है कि होमो सेंपियन के छह हजार साला सफर के मौजूदा मुकाम का बिखराव प्रलय की स्थितियां बनवाते हुए है।

सवाल है जितने सकंट हैं, उनकी फेहरिस्त में एक-एक संकट पर सोचें या उस वजह को पकड़ें जिससे सब संकट हैं? अपना मानना है कि सभी संकटों की जड़़ मनुष्य है। वही समस्याओं की वजह है। उसी के कारण पृथ्वी और मानव अस्तित्व प्रलय के मुहाने पर है। बावजूद इसके मनुष्य जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं! पृथ्वी की आठ अरब आबादी में हर व्यक्ति समस्या है! उसके वैयक्तिक व्यवहार की भूख और सामूहिक विवेकहीनता ने पृथ्वी को समस्याओं का ग्रह बनाया है। वैयक्तिक और सामूहिक क्लेश, विद्वेष, दुर्भावनाओं व संघर्ष की वजह से मानव जीवन और पृथ्वी दोनों संकट में है।

निश्चित ही होमो सेपियंस का जीवन सफर समस्याओं के समाधान की दास्तां भी लिए हुए है। ज्यों-ज्यों मनुष्य सचेत होता गया, उसकी भूख बढ़ी और आवश्यकताओं में आविष्कार हुए। और जीवन जंजाल बनता गया। मनुष्य का स्वभाव बदला। वह समर्थ बना। विकास के शिखर पर पहुंचा। लेकिन बिना अपनी मूल प्रकृति को सुधारे हुए। सभ्य बनते हुए भी वह घूम फिर कर आदिम, असुरी, वहशी याकि सैवज और बर्बर अवस्था में बार-बार लौटा और लड़ाईयां लड़ी। संहार और स्वामित्व के औजार बनाए। नरसंहार, आत्मसंहार, शोषण, दोहन और असमानताओं की क्षमताएं बढ़ती गई। मनुष्य ने न अपना ध्यान रखा और न प्रकृति का ख्याल किया।

कह सकते हैं मनुष्य ने जो किया है और वह जो करते हुए है उसमें उसकी आदिम और यांत्रिक क्रियाओं का बड़ा रोल है। इहलोक का विकास मनुष्य और पृथ्वी के संग-संग का नहीं है बल्कि डाल-डाल व पांत-पांत के संघर्ष से है। मनुष्य ने अपनी प्रकृति में और नेचर बनाम नर्चर के परस्पर विरोधी खिंचावों में आत्मघाती दुष्चक्र बनाए है। मानव समाज के भीतर जहां अमानवीय व्यवस्थाएं बनी वही पूरी मानवता तथा पृथ्वी के संहार की खाईयां भी खुदी।

इस सबको मनुष्य झूठलाते हुए है। उसे और उसकी माईबाप सत्ता को न विजड़म और न सुध कि वह मानव सभ्यता को किस और ले जाते हुए है। सब जोखिमों में जी रहे हैं लेकिन दिल-दिमाग में यह चिंता रैखिक रूप में नहीं है। १४० करोड़ लोगों की भीड़ यह समग्र चिंता लिए हुए नहीं होती कि महामारी में कितने लोग मरे है। वे केवल वैयक्तिक व परिवार पर सोचते हुए होंगे। पृथ्वी के अस्तित्व की चिंता आठ अरब लोगों की आठ अरब गुना चिंता नहीं है। इसलिए कि व्यक्ति को अपने दरवाजे पर प्रलय की लहर नहीं दिख रही। न ही वह भावी पीढिय़ों का भविष्य सोचता हुआ होती है। पिछली सदी में दूसरे महायुद्ध में पांच करोड़ लोग मरे थे। यूक्रेन की मौजूदा लड़ाई यदि तीसरे महायुद्ध में बदले तो क्या खतरा होगा, इसे बूझा जा सकता है। लेकिन आठ अरब लोगों की भीड़ का खतरे से दुबला होना भला कैसे संभव?

ऐसी चिंताएं वैश्विक मंचों का विषय होती है। लेकिन बहुसंख्यक मनुष्य सोच में ये प्रलयकारी संकट रजिस्टर नहीं है। इसलिए उनका स्वभाव नहीं बदल सकता है। इसलिए पृथ्वी को बचाने का निश्चय, जज्बा और संसाधनों का प्रबंधन होता हुआ नहीं है। किसी भी संकट का रियल समाधान संभव नहीं है। अनुभव होते हुए भी यथास्थिति में मानवता जीते हुए होती है।

जैसे उर्जा संकट का त्राहीमाम पुराना है। सभी देश तेल और गैस के मंहगे होने व बिजली की कमी से परेशान है। हिसाब से इजराइल-अरब की पहली लड़ाई से ही पेट्रोलियम पदार्थो के मंहगे होते जाने का वैश्विक आबादी को अनुभव है। इससे बाहर निकलने के कई विकल्प है। लेकिन उनका सिरे चढऩा इसलिए संभव नहीं हुआ क्योंकि आठ अरब लोगों की मानवता में जिन समझदार-विज्ञानी लोगो को तेजी से अनुसंधान और  विकास करना था वहां (अमेरिका) तेल-गैस की पर्याप्त उपलब्धता है। तेल कंपनियों का दबदबा है। नतीजतन विकास धीमी गति से बढता हुआ है। तभी ९५ प्रतिशत आबादी न केवल महंगे जीवाश्म ईंधन को फूंकते हुए है बल्कि अपने हाथों पृथ्वी को गरम बनाते हुए भी है। पनबिजली और माइक्रो-हाइड्रो सौर, पवन, भू-तापीय, तरंग, ज्वार, सेल्यूलोसिक इथेनॉल जैसे स्वच्छ, टिकाऊ, नवीकरणीय ऊर्जा के स्रोत दशकों से मालूम है। सबको पता है कि इनके उपयोग से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटेगी। सस्ती उर्जा मिलेगी। लेकिन जिनकी बुद्धि से संसाधन और  विजड़म संभव है, उनका निश्चय नहीं हुआ तो दशकों से ढ़ाक के तीन पांत।

इस अदूरदर्शिता ने सीओटू का संकट बनाया। अब पर्यावरण बिगडने की रियलिटी को हर कोई अनुभव करता हुआ है। लेकिन समझ का टोटा जस का तस। आठ अरब लोगों में कितनों को सुध है कि इस सदी में सीओटू से वायुमंडल में सांद्रता पिछले ६५०,००० वर्षों की तुलना में अधिक है।  वर्तमान होलोसीन एक्स्टिकेशन इवेंट (६५ मिलियन साल पहले डायनासोर के विलुप्त होने के बाद से सबसे खराब जलवायु परिवर्तन का वक्त) को धीमा या समाप्त करना इंसान के बूते संभव ही नहीं है। इसलिए जीव जगत की कई तरह की प्रजातियां विलुप्त हो रही है तो हो रही है कोई कुछ नहीं कर सकता।

ऐसे ही ग्लेशियर पिघल रहे हैं। महासागरों का जल स्तर बढ़ रहा है। द्वीपीय देश डुबते हुए हैं। नार्थ-साउथ पोल, साईबेरिया और ग्रीनलेंड में भी गर्मी होने लेगी है। सभी और तापमान बढ़ रहा है। बदलती जलवायु से जैव विविधता को अलग खतरा है। जल,जमीन, जंगल के दस तरह के नए संकट है। इस सबके बावजूद क्या वैश्विक अलार्म बजाता हुआ है और क्या लोग वैयक्तिक स्तर पर स्वभाव बदलने को तैयार है? जैसे वैज्ञानिक तौर पर प्रामाणिक एक छोटा उदाहरण। मांसाहार पृथ्वी को मंहगा पडता हैं। अमेरिका में मांस के लिए जानवर जितनी फीड़ खाते है वह वहां पैदा होने वाली सोया, मकई और अनाज की ७० से ९० प्रतिशत फसल होती है। जानवरों को खिलाने की फसलों की पैदावार में पानी की आपूर्ति का लगभग आधा हिस्सा और कृषि भूमि का ८० प्रतिशत इलाका खपता हैं। तथ्य यह भी है कि अमेरिका में ६६ प्रतिशत लोग मोटापे और वजन की समस्या लिए हुए है। लोग मांस कम खांए तो जहा उनकी सेहत को फायदा है वहीं भूखी दुनिया के लिए भी अनाज बच सकना संभव। खेती और खानपान दोनों की प्रवृति में अधिकाधिक पैदावार, रसायनिक उर्वरकों के उपयोग आदि के पर्यावरणीय असर गंभीर है।  उस नाते मनुष्य शरीर व प्रकृति पर प्रभाव को लेकर अमेरिका में जो जागरूकता बननी चाहिए, वह वहां संभव नहीं है तो इसलिए क्योंकि हर मानव सभ्यता-संस्कृति जीने के अपने अंदाज की कहानी में बंधी है।

हां, आठ अरब लोगों का चारदीवारियों में बंटा होना और उनके भीतर सभ्यता-संस्कृति अनुसार जीना कई मायनों में मानव समाज का नंबर एक सकंट है। इसका अतीत और वर्तमान में मानव समाज का भला कम और नुकसान अधिक हुआ है। भूमंडलीकरण के बावजूद मनुष्यों में परस्पर संबंध और संवाद का टोटा है। लड़ाईयों का कारण अपनी-अपनी कहानियों से लोगों का एक-दूसरे से चिढ़े हुए, खुन्नस, खौफ, आंतक, असुरक्षा में जीने का व्यवहार है। ‘वे और ‘हम’ से मानव समाज इतनी तरह बंटा हुआ है कि पृथ्वी इस कारण भी कम घायल नहीं है। लोग परस्पर सहयोग से अधिक प्रतिस्पर्धा, लड़ाई का रिश्ता लिए हुए है। तभी खरबों डालर का प्रतिवर्ष सैनिक खर्च है। क्या यह मामूली संकट है कि परस्पर संदेह, प्रतिस्पर्धा और महत्वकांक्षाओं की संहारक उर्जाओं में लोग जीते हुए हैं। जब ऐसा है तो मनुष्य वैयक्तिक स्तर पर मेलजोल, बातचीत, भाईचारे में बंधने की वैश्विक कोशिश कैसे कर सकता है?

महामारी, बीमारी, मानव पीडा की नाजुक महादशा में भी दुराव और विभाजन खत्म नहीं होता। कोरोना महामारी, एड्स और एचआईवी, कैंसर जैसी बीमारियों और संकटों में भी पृथ्वी के आठ अरब लोग चार दीवारियों की सीमाओं में घुटते-मरते रहते है। निश्चित ही विज्ञान, आधुनिक चिकित्सा के कारण कोविड की महामारी का ईलाज और टीका निकालने में अधिक देरी नहीं हुई। दुनिया के गांव में बदलने, भूमंडलीकरण का फायदा हुआ। बावजूद इसके लोगों को बीमारी, मौत और पीड़ा के अनुभव अलग-अलग हुए है। तभी लगता है मानों इक्कीसवीं सदी में लोग शारीरिक -मानसिक पीडा और चिकित्सा की कतार में जीने की नियति लिए हुए है। भविष्य में चिकित्सा की चिंता लगातार बढ़ती जानी है।

मनुष्य और पृथ्वी का मैक्रो संकट जहां प्रलय का मुहाना है तो वहीं लोगों का वैयक्तिक जीवन, उनके माइक्रो अनुभव पिछले छह हजार सालों के अनुभवों से कई गुना अधिक मुश्किल भरे है। इक्कीसवीं सदी देश, नस्ल, जात-पांत, लिंग भेद, आईडेंटीटी आदि में इतनी तरह के फर्क बना रही है कि मनुष्यता का मानव विचार सिमटता हुआ है। मानवीय रिश्तों में भूख, जरूरत और समस्याओं की कलह बढ़ गई है। आठ अरब लोगों की आबादी में शिक्षा, लोकतंत्र, मानवाधिकार आदि के अलग-अलग अर्थ बन गए है। क्या कभी कल्पना थी कि शिक्षा भी जूनुन पैदा करती हुई होगी? समानता का आईडिया लोगों में भेदभाव बनवाने वाला होगा? मानवाधिकारों से उलटे लोगों के बिखरने-टूटने का खतरा बनेगा?

इसलिए न यह सोचना गलत है कि आठ अरब लोग पृथ्वी की आठ अरब समस्याएं है और न यह मानना गलत है कि होमो सेंपियन के छह हजार साला सफर के मौजूदा मुकाम का बिखराव प्रलय की स्थितियां बनवाते हुए है। मनुष्य की माइक्रो और मैक्रो कारस्तानियां सचमुच विनाश को न्यौतने की है। तभी मानव की बुनावट का यक्ष प्रश्न बेताल पचीसी से अधिक उलझा हुआ है।

 

-हरिशंकर व्यास

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