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भारतीय विदेश नीति का बदलता स्वरूप

विदेश मंत्री एस जयशंकर का ग्लोबल साउथ के साथ हमेशा खड़े रहने और संयुक्त राष्ट्र के प्रभाव को मजबूती देने के लिए लगातार प्रयास करने की घोषणा करना महत्त्वपूर्ण है। जयशंकर ने यह संकल्प संयुक्त राष्ट्र दिवस- २४ अक्टूबर- को एक विशेष वक्तव्य में जताया। अगर यह बयान संपूर्ण पुनर्मूल्यांकन पर आधारित और सुविचारित है, तो इसे भारतीय विदेश नीति में एक महत्त्वपूर्ण बदलाव के रूप में देखा जाएगा। इसलिए कि १९९० के दशक से लेकर हाल तक भारत ने इस बारे में स्पष्ट रुख ना रखने के कारण दुनिया में न सिर्फ विकासशील देशों का स्वाभाविक नेतृत्व गवां दिया, बल्कि वैश्विक मामलों में उसकी आवाज भी कमजोर होती चली गई। ये दौर धनी देशों के साथ समीकरण बनाने की कोशिश का रहा। लेकिन कुल नतीजा यह रहा कि धनी देश भारत को एक बाजार की नजर से देखते रहे और साथ ही उसे अपना पिछलग्गू समझने लगे। दुनिया में भारत की ऐसी ही छवि बनती चली गई। बहरहाल, यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से भारत ने अपनी विदेश नीति में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है। दरअसल, यूक्रेन युद्ध के बाद बनी परिस्थितियों में दुनिया दो खेमों में बंटती चली गई है।
अगर पश्चिमी मीडिया के पास नैरेटिव थोपने की ताकत के बावजूद अब यह सबको स्पष्ट नजर आ रहा है कि अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश इस युद्ध के बाद बनी परिस्थितियों में दुनिया को अपने ढंग से हांकने में सफल नहीं हुए हैं। ऐसे में भारत जैसे बड़े और महत्त्वपूर्ण देश के लिए लंबे समय तक अस्पष्टता का शिकार रहना संभव नहीं रह गया है। इसीलिए भारतीय विदेश मंत्री के बयान ने ध्यान खींचा है। व्यावहारिक रूप से भारत ने इस बीच ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसे उभरते वैकल्पिक ढांचों में अपनी सक्रिय भूमिका बनाए रखी है। साथ ही वह डॉलर से कारोबार को अलग करने की दुनिया में आगे बढ़ रही परिघटना में भी एक हद तक शामिल रहा है। इससे ग्लोबल साउथ में भारत को लेकर दिलचस्पी बढ़ी है। अब विदेश मंत्री के बयान को इस बात का संकेत समझा जाएगा कि भारत ने हाल में भूमिका निभाई है, वह उसकी बदलती सोच का परिणाम है।

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