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बोलना ही तो जुर्म है!

कुछ रोज़ पहले भारत में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने कहा था कि देश में (आपराधिक दंड) प्रक्रिया ही सज़ा बन गई है। ये वो शिकायत है, जिसे पिछले कई वर्षों से देश के कई न्यायविद् और बुद्धिजीवी जताते रहे हैं। दरअसल, समझ यह बनी है कि ये स्थिति लाने में खुद सर्वोच्च न्यायपालिका की भूमिका रही है- और जस्टिस रमना का कार्यकाल भी इस बात का अपवाद नहीं है। इस स्थिति का सीधा अर्थ आधुनिक न्याय व्यवस्था की इस मान्यता का निरर्थक हो जाना है कि दोष सिद्ध होने तक कोई व्यक्ति निर्दोष माना जाएगा। इसीलिए कभी खुद भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भी यह राय जताई थी कि विचाराधीन मामलों के संदर्भ में जेल अपवाद और बेल (जमानत) नियम है। लेकिन आज ये बात कहीं लागू होती नहीं दिखती। नतीजा यह है कि सरकार के खिलाफ बोलना एक ऐसा जुर्म हो गया है, जिसकी बेहद कड़ी सजा भुगतनी होती है। इसकी आज इसके उदाहरणों की सूची खासी लंबी हो चुकी है। इस सूची में ताजा नाम शिव सेना के प्रवक्ता संजय राउत का जुड़ा है।
इसके पहले से ही महाराष्ट्र में ही एनसीपी के नेता नवाब मलिक केंद्र सरकार और वहां सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ ज्यादा बोलने की सजा भुगत रहे हैं। बात कथित अर्बन नक्सलियों से शुरू हुई और अब संसदीय विपक्षी दलों तक पहुंच चुकी है। यह कहने का कतई अर्थ नहीं है कि राजनीति या सार्वजनिक जीवन में जो है, उसे अपराध करने की खुली छूट होनी चाहिए। लेकिन जब सिर्फ विपक्ष के लोगों के कथित अपराध को चुन-चुन कर उन्हें ऐसी प्रक्रिया में फंसाया जा रहा हो, जो अपने-आप में सजा मालूम पड़े, तो यह कहने का आधार बनता है कि यहां मामला कानून के अपना काम करने का नहीं है। सामान्य दिनों में ऐसे मामलों में उम्मीद न्यायपालिका से बनती थी। लेकिन अब अक्सर ये शिकायत सामने आती है कि न्यायपालिका ऐसी कार्रवाइयों की राह सुगम बनाने वाली संस्था बन गई है। हाल में मनी लॉन्ड्रिंग निरोधक अधिनियम के मामले में सुप्रीम कोर्ट को जो फैसला आया, उसने भी ऐसी धारणा को आगे बढ़ाया है। ऐसे में यह सवाल रोज अधिक प्रासंगिक हो जाता है कि क्या भारत में सचमुच कानून का राज है?

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