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जेल सुधार की दरकार – शिवांशु राय

बीते दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने संविधान दिवस के मौके पर अपने अभिभाषण में क्षमता से अधिक भरी जेलों और बड़ी संख्या में बंद कैदियों के प्रति चिंता जताते हुए जेल सुधार पर बल दिया।
इसके तुरंत बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी देश भर के जेल प्रशासन को १५ दिनों के भीतर ऐसे कैदियों का ब्यौरा देने को कहा ताकि उनकी रिहाई के लिए एक राष्ट्रीय योजना बन सके।
‘जेल सुधार’ का मुद्दा स्वतंत्रता के पश्चात हमेशा से ज्वलंत विषय रहा है। भारतीय संविधान में ‘जेलों एवं उसमें रखे कैदियों’ को भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची की प्रविष्टि ४ के तहत राज्य सूची के विषय के तहत रखा गया है। जेलों का प्रशासन और प्रबंधन संबंधी राज्य सरकारों की जिम्मेदारी होती है। हालांकि गृह मंत्रालय जेलों और कैदियों से संबंधी मुद्दों पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नियमित मार्गदशर्न तथा सलाह देता है।
आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में जेलों का बुरा हाल होता जा रहा है। कैदी नारकीय जीवन जी रहे हैं, कैदियों के संदिग्ध स्थिति में मरने, उनके हंगामा मचाने और भागने की खबरें आती रहती हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार भारत में जेलों का कुल ऑक्यूपेंसी रेट १३०.२% है। १९ राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में १००% से अधिक ऑक्यूपेंसी दर है, जो चिंताजनक है। एनसीआरबी के अनुसार इन कैदियों में अस्सी प्रतिशत से अधिक वंचित वर्ग से आते हैं, जिनके पास पर्याप्त विधिक सहयोग और आर्थिक संसाधनों का अभाव है, ऐसे में वे महंगी और धीमी कानूनी प्रक्रिया को नहीं झेल सकते। क्षमता से अधिक भीड़ होने की वजह से पर्याप्त बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का अभाव, समुचित जेल प्रशासन के लिए धन एवं स्टाफ की कमी, स्वच्छ वातावरण, साफ-सफाई, पर्याप्त चिकित्सकीय सुविधाओं एवं जागरूकता की कमी से कैदियों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझना पड़ता है। ट्रांसजेंडरों, महिला कैदियों और उनके बच्चों के अलग से रहन-सहन, सुरक्षा और स्वास्थ्य आदि के लिए भी अपर्याप्त व्यवस्था इन्हें बदहाल जीवन में जीने को मजबूर कर देते हैं।
वर्तमान में कैदियों के सामने अपर्याप्त विधिक सहायता, विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या, हिरासत में होने वाली यातनाएं एवं मृत्यु तथा पारदर्शिता न होने की वजह से भ्रष्टाचार ने स्थितियों को गंभीर बनाया है। रिश्वत के बदले कारावास में मोबाइल, ड्रग्स या हथियार पहुंचने की घटनाएं राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा होने के साथ-साथ कानून के शासन को स्थापित करने के लिए भी चुनौती हैं। आज के समय में सबसे बड़ी चुनौती अपराध-अपराधियों पर अंकुश लगाना एवं साथ ही जेल से बाहर आने पर अपराधी अपराध की दुनिया मे वापस न लौटें यह सुनिश्चित करना है। इसके लिए देश भर की जेलों में बुनियादी ढांचागत सुविधाओं का विस्तार, क्षमता निर्माण एवं नई जेलों की स्थापना की जरूरत है ताकि जेलों में जरूरत से ज्यादा कैदियों को रखे जाने की समस्या का निदान हो सके। कैदियों की अनावश्यक भीड़ कम करने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए।
इसका असल समाधान धीमे और जटिल न्यायिक तंत्र के दुरु स्तीकरण से ही होगा लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक ऐसे विचाराधीन कैदियों को चिह्नित करके जमानत पर रिहा किया जा सकता है, जिन पर संगीन अपराध का अभियोग न लगा हो या जिन्होंने अपने ऊपर लगे अभियोग की संभावित अधिकतम सजा से ज्यादा वक्त जेल में बिता लिया हो। उनके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भी पहल की है।
जेलों में स्वच्छ और पौष्टिक भोजन, कैंटीन, आवश्यक वस्तुओं आदि को खरीदने की सुविधा के साथ-साथ जेल परिसर की साफ-सफाई, स्वच्छता संबंधी जागरूकता एवं बेहतर चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कैदियों को स्वस्थ और रोगमुक्त रखा जा सके। इस संदर्भ में आदर्श कारागार नियमावली, २०१६ का अनुपालन किया जा सकता है। अमिताभ राय समिति के अनुसार कैदियों के लिए कानूनी सहायता, स्पीडी ट्रायल, वकीलों की पर्याप्त उपलब्धता, परिजनों से मुलाकात एवं अपराध के अनुसार वैकल्पिक सजा आदि मुद्दों पर भी गौर करना जरूरी है।
जेल प्रशासन के लिए संसाधनों, धन एवं स्टाफ की कमी भी अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार होती है। रिक्तियां भरना, पर्याप्त वित्त की व्यवस्था बेहद आवश्यक हैं। जेलों में संगठित आपराधिक गतिविधियां, गुटबाजी, हिंसक संघर्ष , कट्टरता आदि रोकने के लिए भी राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक कार्ययोजना एवं कड़े अनुशासनात्मक प्रावधानों को तैयार करके उन्हें क्रियान्वित करने की जरूरत है ताकि जेल आपराधिक गतिविधियों की कार्यशाला न होकर, ‘सुधार गृह’ की भूमिका में आ सकें।

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