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अमेरिका से मंदी की आहट

दुनिया भर में आर्थिक मंदी का अंदाजा पिछले कुछ समय से लगाया जा रहा है। लेकिन अब उसकी आहट बहुत साफ सुनाई दे रही है। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश अमेरिका से ही इसकी शुरुआत हो रही है। वैसे २००८ की वैश्विक आर्थिक मंदी, जिसे सब प्राइम क्राइसिस के नाम से जाना जाता है, उसकी शुरुआत भी अमेरिका से हुई थी। लेहमैन ब्रदर्स सहित २८ बड़ी वित्तीय संस्थाएं दिवालिया हुई थीं। इस बार का संकट उससे अलग है। इस बार अमेरिका से लेकर दुनिया के दूसरे देशों में संकट महंगाई और विकास का है। इसका मतलब है कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के सामने पिछली बार से ज्यादा बड़ी चुनौती है।
अमेरिका में फेडरल रिजर्व ने नीतिगत ब्याज दरों में एक बार में ०.७५ फीसदी की बढ़ोतरी की है। पिछले तीन महीने में दूसरी बार अमेरिका के केंद्रीय बैंक ने ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है। इसका मकसद महंगाई को काबू में करना है। जून के महीने में अमेरिका में ९.१ फीसदी महंगाई दर थी। १९८० के बाद पहली बार अमेरिका में इस तरह से महंगाई बढ़ रही है और तभी १९८० के दशक की तरह ही अमेरिका का केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीतियों के जरिए महंगाई काबू में करने का प्रयास कर रहा है। अमेरिका जैसे क्रेडिट आधारित समाज में ब्याज दर बढऩे से मांग में कमी आएगी और विकास दर घटेगी। तभी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अपने पूर्वानुमान में बदलाव किया और अमेरिका में २.३ की बजाय एक फीसदी विकास दर का अनुमान जताया है।
अमेरिका में ब्याज दर में बढ़ोतरी से दुनिया भर में असर होगा, खास कर भारत जैसे देशों में। भारत में अर्थव्यवस्था की डांवाडोल स्थिति को देखते हुए पहले ही संस्थागत विदेशी निवेशक पैसा निकालने लगे थे। अब इसकी रफ्तार और बढ़ेगी क्योंकि भारत में उनके निवेश पर मिल रहे रिटर्न और अमेरिका में मिल रहे ब्याज के बीच का अंतर कम हो गया है। इसलिए वे ज्यादा सुरक्षित जगह पैसा निवेश करेंगे। अमेरिका में ब्याज दर बढऩे से सिर्फ शेयर बाजार पर ही असर नहीं पड़ेगा, बल्कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी प्रभावित होगा। हालांकि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत में वैश्विक आर्थिक मंदी का सबसे कम असर होने का अनुमान जताया है। हो सकता है कि मंदी की वजह से भारत की स्थिति और खराब न हो लेकिन यह तय है कि स्थिति में सुधार नहीं होना है और ऐसा होना भी भारत के लिए अच्छा नहीं है।

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