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अमेरिका और यूरोप कैसे भरोसा करेंगे? – हरिशंकर व्यास

प्रधानमंत्री ने समरकंद जाकर शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की बैठक में हिस्सा लिया। उनकी रूस के राष्ट्रपति पुतिन से द्विपक्षीय वार्ता भी हुई। एक तरफ भारत अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ क्वाड का हिस्सा है और दूसरी ओर वह एससीओ की बैठक में हिस्सा लेता है। एक तरफ अमेरिका और जापान के साथ टू प्लस टू की बैठक में वार्ता करता है तो दूसरी ओर प्रधानमंत्री रूसी राष्ट्रपति के साथ बातचीत करते हैं। पता नहीं भारत की विदेश नीति के रणनीतिकारों ने इस पर ध्यान दिया या नहीं कि ब्रिटेन ने महारानी के अंतिम संस्कार में रूस और यूक्रेन के खिलाफ उसकी मदद करने वाले बेलारूस को न्योता नहीं दिया गया। जब दुनिया इस तरह से खेमे में बंटी है तो उसमें भारत को अपने हितों को समझते हुए कूटनीति करनी चाहिए।
कोई सोचे कि भारत सबके साथ है तो वैसा कूटनीति में नहीं होता है। भारत जब गुट निरपेक्ष देशों की राजनीति करता था तब भी भारत का झुकाव रूस की ओर होता था। इसकी वजह से पश्चिमी दुनिया के देश भारत पर बहुत विश्वास नहीं करते थे। १९९१ में सोवियत संघ के बिखराव और भारत में मुक्त अर्थव्यवस्था की नीति अपनाए जाने के बाद स्थितियां बदलीं। रूस पहले के मुकाबले कमजोर हो गया तो भारत का कारोबार पश्चिमी देशों के साथ बढ़ा। अमेरिका से परमाणु संधि के बाद भारत का अछूतपन भी खत्म हुआ। लेकिन यह नहीं हो सकता है कि भारत अब भी गुट निरपेक्षता की नीति पर चलता रहे।
हालांकि इससे ऐसा भी नहीं होगा कि प्रधानमंत्री मोदी उज्बेकिस्तान चले गए या रूस के राष्ट्रपति से मिल लिए तो अमेरिका और यूरोप के देश भारत से संबंध खत्म कर लेंगे। असल बात यह है कि भारत पर भरोसा घटेगा। वह न इधर का रहेगा और न उधर का। भारत पर संकट आएगा तो दुनिया के सभ्य और विकसित देश दिल खोल कर मदद नहीं करेंगे। भारत को समझ लेना चाहिए कि चीन का कभी भी भारत के ऊपर भरोसा नहीं है। न हमें उस पर भरोसा करना चाहिए। वह भारत के ज्यादा से ज्यादा हिस्सों को हड़पने और कमजोर करके रखने की कूटनीति कर रहा है। भारत उसके साथ चाहे जितना कारोबार बढ़ा ले और उसकी वजह से चाहे जितना भी नुकसान उठा ले, वह भारत पर भरोसा नहीं करता है। भारत को पता होना चाहिए कि स्लाइसिंग डिप्लोमेसी याकि सलामी कूटनीति के तहत वह एक-एक टुकड़ा जमीन हड़प रहा है। भारत भूमि पर कब्जा बढाता रहेगा। यह भी ध्यान रहे कि रूस पूरी तरह से चीन का पिछलग्गू हो गया है। हम उससे पुराने संबंधों की जितनी दुहाई दें, वह भारत के काम नहीं आने वाला है।
चीन को रूस का भरोसा पहले से नहीं है और भारत भी उस पर भरोसा नहीं कर सकता है तो उसके चक्कर में अमेरिका, यूरोप के ऐसे देश, जो भारत पर भरोसा करते हैं या भारत के लोकतंत्र, इसकी आबादी और इसके पेशेवरों की वजह से अपने को भारत से जोड़ते हैं, तो उनमें क्यों शंका पैदा करना? उनका भरोसा क्यों खोना चाहिए? तभी सवाल है कि प्रधानमंत्री ने समरकंद जाकर समझदारी का काम किया या यह गलत कूटनीति थी? अगर प्रधानमंत्री वहां नहीं जाते तो क्या वह ज्यादा बेहतर कूटनीति नहीं होती?

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