भारतीय मीडिया में इस खबर को खूब अहमियत मिली है कि अमेरिका में पढऩे वाले विदेशी छात्रों में भारतीयों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई है। अब अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढऩे वाला हर चौथा विदेशी छात्र भारतीय है। साल २०२२-२३ में उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका जाने वाले भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ कर २.६० लाख पार कर गई। यह आंकड़ा हर साल बढ़ता जा रहा है। बेशक इस तथ्य से यह बात जाहिर होती है कि भारतीय आबादी में ऐसे लोगों की संख्या की बढ़ी है, जो अपने बच्चों को अमेरिका भेज कर पढ़ाने की स्थिति में हैं।
लेकिन यह तथ्य भारत की अपनी उच्च शिक्षा व्यवस्था पर एक प्रतिकूल टिप्पणी भी है। मुमकिन है कि कुछ लोग आम सोच में अमेरिका की कायम एक असाधारण छवि के कारण वहां पढऩे जाते हों। लेकिन बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अपने बच्चों को विदेश में पढ़ाना ऊंचे करियर के लिए जरूरी महसूस होता है। फिर उनके मन में यह धारणा भी है कि विदेशों में करियर के जो अवसर उपलब्ध हैं, वे भारत में नहीं हैं।
भारत के समृद्ध हिस्सों में ऐसी मौजूद धारणा किसी रूप में भारत के लिए गर्व की बात नहीं हो सकती। इस रुझान के कारण देश का जो धन विदेश जाता है, वह इस रुझान का एक अलग पहलू है। यहां ये बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि दुनिया में अनेक देश ऐसे हैं, जिनके लिए विदेशी छात्रों को अपने यहां आकर्षित करना उनकी अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। ये देश ऐसा इसलिए कर पाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने यहां शिक्षा की बेहतर व्यवस्था और ज्ञान का उपयुक्त वातावरण तैयार कर रखा है। लाखों भारतीय अगर ऐसी व्यवस्था और वातावरण से आकर्षित होते हैं, तो बेशक यह इस मोर्चे पर भारत की विफलता का सूचक है। हर वर्ष बाहर जाने वाले छात्रों की बढ़ती संख्या इस विफलता के सघन होने की निशानी है। यह अपनी शिक्षा व्यवस्था में कमजोर होते भरोसे का संकेत है। गौरतलब है कि २०२२-२३ में अमेरिका गए भारतीय छात्रों की संख्या में ३५ प्रतिशत की रिकॉर्ड बढ़ोतरी दर्ज हुई।
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