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Difficulty or opportunity for Kejriwal? - Ajit Dwivedi

केजरीवाल के लिए मुश्किल या मौका? – अजीत द्विवेदी

सीबीआई का शिकंजा अरविंद केजरीवाल के लिए मुश्किल की घड़ी है या उनके लिए राजनीतिक मौका है? इस सवाल को ऐसे भी पूछा जा सकता है कि शराब नीति से जुड़े कथित घोटाले में सीबीआई की जांच को क्या केजरीवाल राजनीतिक अवसर में बदल सकते हैं? वे किसी भी घटना को अपने लिए अवसर बना लेने में माहिर हैं। इस मामले में उनकी योग्यता और क्षमता पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है। लेकिन यह पहला मौका है, जब उनकी निजी और पार्टी दोनों की बुनियादी पहचान सवालों के घेरे में है। पहली बार वे ईमानदारी के सवाल पर घिरे हैं। केजरीवाल अपनी पार्टी को कट्टर ईमानदार बताते हैं लेकिन अब उस पार्टी के ऊपर शराब नीति में गड़बड़ी करके एक सौ करोड़ रुपए की रिश्वत लेने का आरोप है।
इससे पहले केजरीवाल के ऊपर अराजकता के आरोप लगते रहे हैं, पंजाब में अलगाववादियों की मदद लेने का आरोप भी उनके ऊपर लगा, अन्ना हजारे और आंदोलन के दूसरे साथियों से धोखा करने का आरोप उन पर लगा, उनको अर्बन नक्सल कहा जाता रहा है, उनको ‘मुफ्त की रेवड़ीÓ बांट कर राजनीति करने वाला नेता भी कहा जाता है और सरकारी विज्ञापन देकर अपना प्रचार करने के आरोप भी उनके ऊपर लगते रहे हैं। यह पहली बार है, जब उनके ऊपर भ्रष्टाचार का इतना बड़ा आरोप लगा है। उनके सबसे करीबी सहयोगी मनीष सिसोदिया इस मामले में जेल में बंद हैं और अब सीबीआई ने खुद केजरीवाल को बुला कर उनसे नौ घंटे तक पूछताछ की है। आगे भी उनको पूछताछ के लिए बुलाया जाएगा। हालांकि वे बार बार कह रहे हैं कि पूरा केस फर्जी है और भाजपा ने सीबीआई को उनको गिरफ्तार करने का आदेश दिया हुआ है।
सो, अब यह ईमानदारी और देशभक्ति की राजनीति करने वाले दो नेताओं के बीच की निर्णायक लड़ाई बन गई है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, जिनकी राजनीति का आधारभूत मुद्दा ईमानदारी, राष्ट्रवाद और मजबूत नेतृत्व है। बिल्कुल इसी तरह के राजनीतिक एजेंडे से केजरीवाल ने उनको चुनौती दी है। केजरीवाल अपने को ‘कट्टर ईमानदार’ और ‘कट्टर देशभक्त’ बताते हैं। तभी अगर सीबीआई का केस बहुत मजबूत नहीं होता है और वे उसकी जांच के बाद बेदाग निकलते हैं तो यह उनकी बहुत बड़ी जीत होगी। केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के खिलाफ चल रही विपक्षी पार्टियों की राजनीतिक और कानूनी लड़ाई का वे प्रतीक बन जाएंगे। केजरीवाल को यह कहने का मौका मिलेगा कि शराब नीति का पूरा केस फर्जी है और राजनीतिक कारणों से उनको इसमें फंसाने का प्रयास किया गया। उनका यह दावा सही साबित होगा कि सीबीआई के पास कोई सबूत नहीं है। अगर वे इस मामले में बचते हैं तो पूरे देश में इसे केंद्र सरकार और भाजपा की हार और अपनी जीत के तौर पर प्रचारित करेंगे। धारणा की लड़ाई में यह उनकी और अन्य विपक्षी पार्टियों की बहुत बड़ी जीत होगी।
लेकिन अगर केजरीवाल शराब नीति से जुड़े कथित घोटाले में फंस जाते हैं। सीबीआई को कैसा भी सबूत मिल जाता है और सिसोदिया की तरह केजरीवाल भी जेल चले जाते हैं तो यह आम आदमी पार्टी के लिए बड़ा झटका होगा। पार्टी के विस्तार पर एक तरह से पूर्णविराम लग जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि केजरीवाल की पार्टी संगठन आधारित नहीं है, बल्कि वन मैन शो की तरह है। वहां सब कुछ केजरीवाल हैं। उनकी पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह से ज्यादा लोकप्रिय उनका नाम है। अखिल भारतीय पहचान वाले जितने भी नेता आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, केजरीवाल ने सबको पार्टी से निकाल दिया है। दूसरी लाइन के नेता उनकी पार्टी में नहीं हैं। वे अकेले नेता हैं और बाकी सारे कार्यकर्ता हैं, उनके आदेश और एजेंडे पर अमल करने वाले। पूरे देश में आम आदमी पार्टी का संगठन भी नहीं है। लोकप्रियता हासिल करने वाले एजेंडे के प्रचार की भी जो शैली केजरीवाल की है वह किसी और नेता के पास नहीं है। ‘मुफ्त की रेवड़ी’ बांटने का केजरीवाल ने अपना मॉडल विकसित किया है और उस पर लोगों का भरोसा तभी बनता है, जब खुद केजरीवाल इसकी घोषणा करते हैं। जब वे प्रचार में नहीं होंगे तो पार्टी के पास कोई ऐसा भरोसेमंद चेहरा नहीं है, जो लोगों को यकीन दिला सके। राजनीतिक रणनीति बनाने वाला भी कोई दूसरा नेता पार्टी के पास नहीं है।
कहने की जरूरत नहीं है कि केजरीवाल दोनों स्थितियों से निपटने की तैयारी में लगे होंगे। उनकी होशियारी और राजनीतिक समझदारी पर किसी को संदेह नहीं है। आखिर इतने कम समय में उनकी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा ऐसे ही नहीं मिल गया। शुरुआती झटके से उबर कर केजरीवाल ने अपनी पार्टी के विस्तार की रणनीति बदली और एक बार में पूरे देश में राजनीति करने की बजाय उन्होंने राज्यवार आगे बढऩे का फैसला किया। बहुत होशियारी से उन्होंने आम आदमी पार्टी के विस्तार के लिए कांग्रेस शासित राज्यों को चुना। उनको पता था कि कांग्रेस को बदनाम करने के लिए उन्हें ज्यादा कुछ नहीं करना है। ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के आंदोलन से ही बहुत काम हो चुका था और बचा-खुचा काम काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी प्रचार टीम कर रही थी। केजरीवाल ने इसका फायदा उठाया और अपनी पार्टी को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश किया। दिल्ली और पंजाब में उनकी यह रणनीति सौ फीसदी कारगर साबित हुई और दोनों जगह उनकी सरकार बन गई। गोवा और गुजरात में आंशिक कामयाबी मिली लेकिन इन दो राज्यों ने आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिला दिया, जिससे उनके लिए आगे का रास्ता बन गया।
केजरीवाल ने पार्टी के नाम और चुनाव चिन्ह से लेकर राजनीतिक एजेंडे तक सब कुछ राष्ट्रीय पार्टी की तरह प्लान किया हुआ है। तभी वे डीएमके या तृणमूल कांग्रेस, टीडीपी, वाईएसआर कांग्रेस की तरह एक राज्य में सिमटे नहीं और न उनको के चंद्रशेखर राव की तरह पार्टी का नाम बदलने की जरूरत पड़ी। उन्होंने सब कुछ पहले से सोचा हुआ है। २०१४ के लोकसभा चुनाव में लगे झटके के बाद सब कुछ उनके हिसाब से हो रहा है। वे एक एक कदम बढ़ा रहे हैं और कामयाब हो रहे हैं। पिछले नौ साल में पहली बार उनके रास्ते में बाधा आई है। वह बाधा सीबीआई और ईडी की जांच की है। यह जांच उनको नायक बना सकती है या फिर भ्रष्टाचार के आरोपी दूसरे प्रादेशिक क्षत्रपों की लीग में शामिल करा सकती है। अगर वे नायक बनते हैं तो कहने की जरूरत नहीं है कि फायदा उनकी पार्टी को होगा और नुकसान कांग्रेस व विपक्ष की राजनीति को होगा। तभी यह मामला बहुत सीधा नहीं है। इसकी कई परतें हैं, जिनका खुलासा समय के साथ होगा।

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