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गरीब देशों की कौन सुनेगा?

हिरोशिमा में जी-७ शिखर सम्मेलन में कई विकासशील देशों के नेता बुलाए गए। इस संबंध में मेजबान जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने कहा कि इन देशों के नेताओं को बुलाने का मकसद विकासशील दुनिया की अहमियत को जताना है। यह बात तमाम विकासशील देशों को सुनने में बहुत अच्छी लगेगी। लेकिन यह सवाल बरकरार है कि इन देशों के महत्त्व को दुनिया के सबसे धनी मुल्क सिर्फ जुबानी मान्यता दे रहे हैं, या विकासशील विश्व की बात सुनने को भी वे तैयार हैं?
बुलाए गए देशों में भारत और ब्राजील भी शामिल थे। भारत, ब्राजील और कई अन्य देश इस बात की लगातार मांग करते रहे हैं कि सुरक्षा परिषद में मूलभूत सुधार किये जाएं। ये देश सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं। इसके अलावा वित्तीय व्यवस्था में भी इन देशों की अहमियत बढ़ाने की मांग उठती रही है। मसलन, यह कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में इन देशों के मत का हिस्सा बढ़ाया जाए।
अभी तक ऐसा कोई संकेत नहीं है कि धनी देश इन मांगों पर सहानुभूति का रवैया अपनाने को तैयार हों। जबकि दुनिया की अर्थव्यवस्था में इन देशों की भूमिका और हिस्सेदारी का लगातार विस्तार हुआ है।
यह तो साफ है कि जी-७ के देश विकासशील दुनिया के एक हिस्से को चीन विरोधी लामबंदी में अपने साथ लेना चाहते हैँ। इसलिए कि इसके बिना उनकी लामबंदी कारगर नहीं होगी। यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से यह बात जाहिर होती गई है कि रूस और चीन को अलग-थलग करने की पश्चिमी देशों की कोशिश आगे नहीं बढ़ पाई है। ऐसे में यह प्रश्न उठेगा कि क्या जी-७ दोनों तरफ अपने हित साधने में की कोशिश में शामिल देशों को लुभा कर दूसरे खेमे के खिलाफ अपना वजन बढ़ाने के लिए विकासशील देशों को अच्छी लगने वाली बातें कह रहा है या सचमुच उसका इरादा विश्व व्यवस्था के संचालन में इन देशों की भूमिका बढ़ाना है? बेशक आने वाले महीनों में इस मामले में धनी देशों का इम्तहान होगा। अगर उनकी बातें जुबानी ही रहीं, तो जिस मकसद से उन्होंने हिरोशिमा में मजमा जुटाया, वह शायद कामयाब नहीं हो सकेगा।

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