एक राजा के राज्य में सभी लोग नवरात्रि का व्रत रखते थे।
प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को नवरात्रि दिन अन्न नहीं दिया जाता था।
एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला महाराज ! कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें।
तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी कि ठीक है रख लेते हैं। किन्तु रोज तो तुम्हें खाने को सब कुछ मिलेगा पर नवरात्रि को अन्न नहीं मिलेगा।
उस व्यक्ति ने उस समय ‘हां’ कर ली, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा..
महाराज ! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा। मुझे अन्न दे दो।
राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को राजी नहीं हुआ, तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए।
वह नित्य की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा।
जब भोजन बन गया तो वह देवी को बुलाने लगा- आओ देवी ! भोजन तैयार है।
उसके बुलाने पर शेर पर सवार देवी अपने दिव्य रूप में आ पहुंचीं और प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगीं।
भोजन करके देवी अंतर्धान हो गईं और वह अपने काम पर चला गया।
सात दिन बाद अष्टमी को वह राजा से कहने लगा कि महाराज मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया।
राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया कि हमारे साथ देवी भी खातीं हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला मैं नहीं मान सकता कि देवी तुम्हारे साथ खातीं हैं।
मैं तो इतना व्रत रखता हूं, पूजा करता हूं, पर देवी ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।
राजा की बात सुनकर वह बोला महाराज ! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें।
राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा देवी को शाम तक पुकारता रहा, परंतु देवी न आयीं।
अंत में उसने कहा- हे देवी ! यदि आप नहीं आईं तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।
लेकिन देवी नहीं आईं, तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा।
प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही देवी ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगीं।
खा-पीकर वे उसे अपने दिव्य विमान में बिठाकर अपने धाम ले गईं।
यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई लाभ नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो।
इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।
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