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growing circle of misery

बदहाली का बढ़ता दायरा

बीते कुछ समय से इस खबर की खास चर्चा हुई है कि कैसे पिछले पांच साल में भारत के ७२ प्रतिशत सूक्ष्म, लघु और मध्यम कारोबारियों की आमदनी बिल्कुल नहीं बढ़ी है। एमएसएमई सेक्टर संकट में है, इस बारे में ठोस आंकड़े पहले से उपलब्ध रहे हैं। दरअसल, नोटबंदी ने इस सेक्टर की जो कमर तोड़ी, वह आज तक नहीं संभल पाई है। ताज़ा ख़बर एक सर्वे पर आधारित है, जिसमें बताया गया कि इस क्षेत्र के अधिकांश कारोबारी जीएसटी को जिस ढंग से लागू किया गया, उससे भी परेशान हैं। लेकिन सिर्फ वो ही परेशान हों, ऐसी बात नहीं है। एक वित्तीय अखबार ने खबर दी है कि अगर बैंकिंग, वित्तीय सेवाओं और बीमा (बीएफएसई) कंपनियों को छोड़ दें, तो संगठित क्षेत्र की भी बाकी तमाम कंपनियों का मुनाफा लगातार गिर रहा है। बैंकिंग, वित्तीय सेवाओं और बीमा उद्योग वे क्षेत्र हैं, जिन्होंने शेयर मार्केट को चमका रखा है। लेकिन बाकी कारोबार में ऐसी कोई चमक नहीं है। तेल-साबुन बनाने वाली कंपनियों यानी एफएमसीजी की बिक्री लगातार गिर रही है, यह खबर एकाध अपवाद मौकों को छोड़ कर बाकी तमाम महीनों के अंत में आई रिपोर्टों से मिलती रही है।
अगर गहराई से देखें, तो इन सारी नकारात्मक खबरों के तार एक दूसरे से जुड़े नजर आएंगे। एमएसएमई सेक्टर भारत में सबसे ज्यादा रोजगार मुहैया कराने वाला क्षेत्र है। अगर ये कारोबार संकट में होंगे, करोड़ों लोगों की आमदनी घटेगी, जो अपना खर्च घटाने को मजबूर होंगे। उससे बाजार में मांग का घटना तय है। असल में यही हुआ है। ऊपर से बीते चार साल जारी असाधारण महंगाई ने लोगों की वास्तविक आय घटा दी है। ऐसे में कंपनियों की बिक्री या मुनाफा बढऩे का कोई आधार नहीं है। ये स्थितियां देश में लगातार विकराल हो रहे आर्थिक संकट की तरफ इशारा करती हैं। बेशक, सरकार में ऐसे अधिकारी हैं, जो इन संकेतों को समझते होंगे। इसके बावजूद बाजार में उपभोगा और मांग बढ़ाने वाली नीतियां अगर नहीं अपनाई गई हैं, तो उसे सरकार की सुनियोजित नीति का परिणाम ही माना जाएगा। तो भारत की बढ़ती दुर्दशा के लिए जवाबदेह कौन है, यह स्पष्ट है।

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