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भारतीय कार्यबल में घटती महिलाएं

२०२१ में कार्यबल में भारतीय महिलाओं की भागीदारी घटकर २३ फीसदी रह गई। २०१८ में हुए एक सर्वेक्षण से सामने आया था कि कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी के मामले में १३१ देशों की सूची में भारत १२०वें नंबर पर था।
हाल के दशकों मे, भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या में काफी कमी आई है। विश्व बैंक के मुताबिक भारत में औपचारिक और अनौपचारिक कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी साल २००५ में २७ फीसदी थी, जो २०२१ में घटकर २३ फीसदी रह गई। २०१८ में हुए थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण के मुताबिक कार्यबल (वर्क फोर्स) में महिलाओं की हिस्सेदारी के मामले में १३१ देशों की सूची में भारत का १२०वां स्थान था। स्पष्टत: भारत में कार्यक्षेत्र में महिलाओं की कमी के पीछे कई कारण हैं। इनमें बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी, शादी के बाद घर की देखभाल, कौशल की कमी, शैक्षणिक व्यवधान और नौकरियों की कमी शामिल हैं। महिलाओं को घर के बाहर जाकर काम नहीं करना चाहिए, जैसी मान्यताएं भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों में से एक है- खासकर यौन हिंसा के जोखिम के मामले में। कार्यबल में महिलाओं की घटी संख्या पर अक्सर चिंता जताई जाती है, लेकिन इसका व्यावहारिक समाधान क्या है, इस पर कम ही बात होती है।
इस समस्या का संबंध सामाजिक मान्यताओं के साथ-साथ अर्थव्यवस्था और उसके संकट से भी जुड़ा है। जब किसी कंपनी में श्रमिकों को निकालने की नौबत आती है, तो सबसे पहले महिलाओं को बाहर किया जाता है। चूंकि महिलाओं को लैंगिक असमानता और पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे भेदभाव का सामना करना पड़ता है, और अब सरकार ने भी महिलाओं के कार्यस्थलों पर अनुकूल स्थितियां बनाने से ध्यान हटा लिया है, इसलिए यह समस्या गहराती जा रही है। जरूरत उन महिलाओँ पर ध्यान देने की है, जो घर की चाहरदीवारी में बंद नहीं रहना चाहतीं और बाहर काम करने के मौके की तलाश में रहती हैं। साथ ही उन महिलाओं को उचित विकल्प उपलब्ध कराना होगा, जो नौकरी जाने के बाद दोबारा काम पर लौटना चाहती हैं। लेकिन यह सब एक नियोजित और ऐसी अर्थव्यवस्था में ही हो सकता है, जहां नीतियां बनाने में सरकार अपनी भूमिका समझती हो। दुर्भाग्य से भारत में अभी सोच ठीक इसके उलटी दिशा में है।

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